________________ ततीय शतक : उद्देशक-३ ] [337 तुरन्त सूख कर नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार कम्पनादिक्रियारहित मनुष्य के कर्मरूप ईन्धन शुक्लध्यान के चतुर्थ भेदरूप अग्नि में जल कर भस्म हो जाते हैं, सूखकर नष्ट हो जाते हैं। (5) तीसरा दृष्टान्त-जैसे सैकड़ों छिद्रों वाली नौका छिद्रों द्वारा पानी से लबालब भर जाती है, किन्तु कोई व्यक्ति नौका के समस्त छिद्रों को बन्द करके नौका में भरे हुए सारे पानी को उलीच कर बाहर निकाल दे तो वह नौका तुरन्त पानी के ऊपर आ जाती है। इसी प्रकार प्राश्रवरूप छिद्रों द्वारा कर्मरूपी पानी से भरी हुई जीवरूपी नौका को, कोई आत्म-संवत एवं उपयोगपूर्वक समस्त क्रिया करने वाला अनगार आश्रवद्वारों (छिद्रों) को बन्द कर देता है और निर्जरा द्वारा संचित कर्मों को रिक्त कर देता है, ऐसी स्थिति में केवल ऐपिथिको क्रिया उसे लगती है, वह भी प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट होती है, द्वितीय समय में उदीरित एवं वेदित हो जाती है और तृतीय समय में वह जीव-प्रदेशों से पृथक् होकर निर्जीर्ण हो जाती है / इस प्रकार की प्रक्रिय-आश्रवरहित अकर्मरूप स्थिति में जोवरूपी नोका ऊपर आकर तैरती है / वह क्रियारहित व्यक्ति संसारसमुद्र से तिर कर अन्तक्रियारूप मुक्ति पा लेता है।' विविध क्रियाओं का अर्थ-एयति–कम्पित होता है। वेयति - विविध प्रकार से कांपता है / चलति- स्थानान्तर करता है, गमनागमन करता है / फंदइ = थोड़ी-सी, धीमी-सी हल-चल करता है / घट्टइ = सब दिशानों में चलता है / खुभइ क्षुब्ध-चंचल होता है या पृथ्वी को क्षुब्ध कर देता है अथवा दूसरे पदार्थ को स्पर्श करता है, उरता है। उदीरति = प्रबलता से प्रेरित करता है, दूसरे पदार्थों को हिलाता है / तं तं भावं परिणमति उत्क्षेपण, अवक्षेपण, प्राकुचन, प्रसारण आदि उस-उस भाव= क्रिया-पर्याय (परिणाम) को प्राप्त होता है। एजन (कम्पन) आदि क्रियाएँ क्रमपूर्वक और सामान्य रूप से सदैव होती है / आरम्भ, संरम्भ प्रौर समारम्भ-क्रम यों है--संरम्भ = पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा करने का संकल्प करना, समारम्भ = उन्हें परिताप-संताप देना, तथा प्रारम्न उन जीवों की हिंसा करना। 'दुक्खावणताएं' आदि पदों को व्याख्या-दुक्खावणयाए - मरणरूप या इष्टवियोगादिरूप दुःख पहुँचाने में। सोयावणताए = शोक, चिन्ता या दैन्य में डाल देने में। जरावणताए = झूराने, अत्यन्त शोक के बढ़ जाने से शरीर को जीर्णता-क्षीणता में पहुँचा देने में। तिप्पावणताए - रुलाने या आँसु गिरवाने में। पिट्टावणताए=पिटवाने में। अंतकिरिया= समस्त कर्मध्वंसरूप स्थिति, मुक्ति। तणहत्थय = घास का पूला / मसमसाविज्जइ = जल जाता है। जायतेयंसि = अग्नि में / तत्तंसि प्रयकवल्लंसि = तपे हुए लोहे के कडाह में / बोलट्टमाणा-लबालब भरी हो / वोसट्टमाणा-पानी छलक रहा हो / उड्ढे उद्दाति = ऊपर आ जाती है / अत्तत्तासंखुडस्स-प्रात्मा द्वारा आत्मा में संवृत हुए / पाउत्तं उपयोगयुक्त / तुयट्टमाणस्स- करवट बदलते हए। माया = विमात्रा से-थोड़ी-सी मात्रा से भी। सपेहाय = स्वेच्छा से। सुहमा =सूक्ष्मबंधादिरूप काल वाली / ईरियावहिया-केवल योगों से जनित ईपिथिकी क्रिया। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती 1. (क) विवाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) (पं. बेचरदासजी) भा. 1, पृ. 156 से 158 तक (ख) भगवतीसूत्र (टोकानुवादसहित) पं. बेचरदासजी खण्ड 2, पृ. 76 से 80 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org