________________ 338] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वीतरागों में जब तक ऐसी सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया रहती है, तब तक उनके सातावेदनीय कर्मबन्ध होता है / प्रमत्तसंयमी और अप्रमत्तसंयमी के प्रमत्तसंयम और अप्रमत्तसंयम के सर्व काल का प्ररूपरण 15. पमत्तसंजयस्त णं भंते ! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य गं पमत्तद्धा फालतो केवच्चिरं होति ? मंडियपुत्ता ! एगजीवं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा। [15 प्र.] भगवन् ! प्रमत्त-संयम में प्रवर्त्तमान प्रमत्तसंयत का सव मिला कर प्रमत्तसंयमकाल कितना होता है ? [15 उ.] मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशान पूर्वकोटि-(काल प्रमत्तसंयम का काल) होता है। अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल (सर्वाद्धा) (प्रमत्तसंयम का काल) होता है। 16. अप्पमत्तसंजयस्स गं भंते ! अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य गं अप्पमत्तद्धा कालतो केवच्चिरं होति ? . मंडियपुत्ता ! एगजीवं पड़च्च जहन्नेणं अंतोमुमुत्तं, उक्कोसेणं पुषकोडी देसूणा / णाणाजीवे पडुच्च सम्वद्ध / सेवं भंते ! 2 त्ति भगवं मंडियपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, 2 संजमेणं तवसा अपाणं भावेमाणे विहरइ / [16 प्र] भगवन् ! अप्रमत्तसंयम में प्रवर्तमान अप्रमत्तसंयम का सब मिला कर अप्रमत्तसंयमकाल कितना होता है ? [16 उ.] मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि-(काल अप्रमत्तसंयम का काल) होता है / अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होता है / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 183 से 185 तक (ख) भगवती विवेचन (पं घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 659 से 665 तक (ग) संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो / आरंभो उद्दवओ, सवनयाणं विसुद्धाणं // 2. 'कालओ' और 'केवच्चिर' ये दो एकार्थक पद देने का तात्पर्य है-कालओ= काल की अपेक्षा, केवच्चिरं - कितने काल तक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org