________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३ ] [339 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है !' यों कह कर भगवान् मण्डितपूत्र अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी को बन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार करके वे संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। विवेचन-प्रमत्तसंयमी और अप्रमत्तसंयमी के प्रमत्तसंयम एवं अप्रमत्तसंयम के सर्वकाल का प्ररूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमशः प्रमत्तसंयमी के प्रमत्तसंयम के समग्रकाल का, तथा अप्रमत्तसंयमी के अप्रमत्तसंयम के समग्र काल का, एक जीव और अनेक जीवों की अपेक्षा से कथन किया गया है।' प्रमत्तसंयम का काल एक समय कैसे ?–प्रमत्तसंयम प्राप्त करने के पश्चात् यदि तुरन्त एक समय बीतने पर ही प्रमत्तसंयमी की मृत्यु हो जाए, इस अपेक्षा से प्रमत्तसंयमी का जघन्यकाल एक समय कहा है। अप्रमत्तसंयम का काल एक अन्तर्मुहूर्त क्यों ?–अप्रमत्तसंयम का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त इसलिए बताया गया है कि अप्रमत्तगुणस्थानवी जीव अन्तर्मुहूर्त के बीच में मरता नहीं है। उपशम श्रेणी करता हुआ जीव बीच में ही काल कर जाए इसके लिए जघन्यकाल अन्तमुहूर्त का बताया है / इसका उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि-काल केवलज्ञानी की अपेक्षा से बताया गया है। क्योंकि केवली भी अप्रमत्तसंयत की गणना में आते हैं। छठे गुणस्थान से ऊपर के सभी गुणस्थान अप्रमत्त हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतगुणस्थान का अलग-अलग काल अन्त मुहूर्त प्रमाण ही है, अर्थात् प्रमत्तसंयत अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् अप्रमत्तदशा में अवश्य आता है और सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत प्रमत्त-अवस्था में अवश्य आता है / किन्तु दोनों गुणस्थानों का मिलाकर देशोनपूर्व कोटि काल बतलाया गया है / इसका कारण यह है कि संयमी का उत्कृष्ट आयुष्य देशोनपूर्वकोटि का ही है। चतुर्दशी आदि तिथियों को लवरणसमुद्रीय वृद्धि-हानि के कारण का प्ररूपरण 17. 'भंते ! ति भगवं गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, 2 ता एवं वदासिकम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे चाउद्दस-ऽटुमुट्ठिपुण्णमासिणीसु अतिरेयं वड्ढति वा हायति वा ? लवणसमुद्दवत्तव्वया नेयम्वा जाव' लोटिती / जाव लोयाणभावे / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति / / ततिए सए : तइनो उद्देसो समत्तो // {17 प्र.] 'हे भगवन् ! ' यों कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया / वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-(पूछा-) 'भगवन् ! लवणसमुद्र; चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी; इन चार तिथियों में क्यों अधिक बढ़ता या घटता है ? 1. वियाहपष्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 158 2. भगवतीसूत्र अ.न, पत्रांक 163 3. 'जाव' शब्द सुचक पाठ-लोयट्रिती / जंणं लवणसमूह जंब्रीवं दीव णो उप्पीलेति / णो चेव णं एगोदगं करेउ / लोयाणुभावे / सेवं भंते ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org