________________ 340 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [17 उ.] हे गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में लवणसमुद्र के सम्बन्ध में जैसा कहा है, वैसा यहाँ भी जान लेना चाहिए; यावत् 'लोकस्थिति' से 'लोकानुभाव' शब्द तक कहना चाहिए। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं'; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं। विवेचन-चतुर्दशी श्रादि तिथियों में लवणसमुद्र की वृद्धि-हानि के कारण प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए लवणसमुद्रीय वृद्धि-हानि के कारण-विषयक प्रश्नोत्तर अंकित हैं। वृद्धि-हानि का कारण-जीवाभिगम सूत्रानुसार चतुर्दशी आदि तिथियों में वायु के विक्षोभ से लवणसमुद्रीय जल में वृद्धि-हानि होती है, क्योंकि लवणसमुद्र के बीच में चारों दिशाओं में चार महापातालकलश हैं, जिनका प्रत्येक का परिमाण 1 लाख योजन है / उसके नीचे के विभाग में वायु है. बीच के विभाग में जल और वाय है और ऊपर के भाग में केवल जल है। इन चार महापातालकलशों के अतिरिक्त और भी 7884 छोटे-छोटे पातालकलश हैं, जिनका परिमाण एक-एक हजार योजन का है, और उनमें भी क्रमशः वायु, जल-वायु और जल हैं। इनमें वायु-विक्षोभ के कारण इन तिथियों में जल में बढ़-घट होती है / दश हजार योजन चौड़ी लवणसमुद्र की शिखा है, तथा उसकी ऊँचाई 16 हजार योजन है, उसके ऊपर आधे योजन में जल की वृद्धि-हानि होती है। अरिहन्त आदि महापुरुषों के प्रभाव से लवणसमुद्र, जम्बुद्वीप को नहीं बुबा पाता। तथा लोकस्थिति या लोकप्रभाव ही ऐसा है।' // तृतीय शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक (ख) जीवाभिगम. सू. 324-325, पत्रांक 304-305 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org