________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समितरूप से कम्पित होता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह जोव, अन्तिम समय (मरणकाल) में अन्तक्रिया नहीं कर सकता / 13. जोवे गं भंते ! सया समियं नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमति ? हता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं जाव नो परिणमति / [१३-प्र.] भगवन् ! जीव, सदैव (शाश्वतरूप से) समितरूप से ही कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता ? [१३-उ.] हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा के लिए समितरूप से ही कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता / (अर्थात् जीव एकदिन क्रियारहित हो सकता है।) 14. [1] जावं च णं भंते ! से जोवे नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमति तावं च णं तस्स जोवस्स अते अंतकिरिया भवति ? हंता, जाव भवति / [14-1 प्र.] भगवन् ! जब वह जीव सदा के लिए समितरूप से कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता; तब क्या उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) नहीं हो जाती? [14-1 उ.] हाँ, (मण्डितपुत्र ! ) ऐसे यावत् जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) हो जाती है। [2] से केण?णं भंते ! जाव भवति ? मंडियपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयति जाव णो परिणमइ तावं च णं से जोवे नो पारमति, नो सारभति, नो समारभति, नो प्रारंभे वट्टइ, णो सारंभे वट्टइ, णो समारंभे वट्टइ, प्रणारभमाणे असारभमाणे असमारभमाणे, प्रारंभे अवट्टमाणे, सारंने प्रवट्टमाणे, समारंभे प्रवट्टमाणे बहूणं पाणाणं 4 अदुक्खावणयाए जाव अपरियावणयाए वट्टइ / [14-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है कि ऐसे जीव को यावत् अन्तक्रिया-- मुक्ति हो जाती है ? [14-2 उ.] मण्डितपुत्र! जब वह जीव सदा (के लिए) समितरूप से (भी) कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता, तब वह जीव प्रारम्भ नहीं करता, संरम्भ नहीं करता एवं समारम्भ भी नहीं करता, और न ही वह जीव प्रारम्भ में, संरम्भ में एवं समारम्भ में प्रवृत्त होता है। प्रारम्भ, संरम्भ और समारम्भ नहीं करता हुआ तथा प्रारम्भ, संरम्भ और समारम्भ में प्रवृत्त न होता हुआ जीव, बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में यावत् परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त (या निमित्त) नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org