________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३] / [11 उ.] हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित--(परिमित रूप से कांपता है, यावत् उनउन भावों में परिणत होता है। 12. [1] जावं च णं भंते ! से जोवे तया समितं जाव परिणमति तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवति ? जो इण8 सम8। [2] से केणठ्ठणं भंते ! एवं वृच्चइ-जावं च णं से जीवे सदा समितं जाव अंते अंतकिरिया न भवति ? __ मंडियपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समितं जाव परिणमति सावं च णं से जीवे प्रारभति सारभति समारभति, प्रारंभे वट्टति, सारंभे वट्टति, समारंभे वट्टति, प्रारममाणे सारभमाणे समारभमाणे, प्रारंभे वट्टमाणे, सारंभे वट्टमाणे, समारंभे वट्टमाणे बहूणं पाणाणं भूताणं जीवाणं सत्ताणं दुषखावणताए सोयावणताए जूरावणताए तिप्पावणताए पिट्टावणताए परितावणताए' वट्टति, से तेण?णं मंडियपुत्ता ! एवं बुच्चति–जावं च णं से जीवे सया समितं एयति जाव परिणमति तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति / [12- प्र.] भगवन् ! जब तक जीव समित-परिमत रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत (परिवर्तित) होता है, तब तक क्या उस जीव की अन्तिम-(मरण) समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है ? [12-1 उ.] मण्डितपुत्र ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है; (क्योंकि जीव जब तक क्रियायुक्त है, तब तक अन्तक्रिया (क्रिया का अन्तरूप मुक्ति नहीं हो सकती / ) [12-2 प्र.) भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव समितरूप से सदा कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक उसकी अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती? [12-2 उ.] हे मण्डितपुत्र ! जीव जब तक सदा समित रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह (जीव) प्रारम्भ करता है, संरम्भ में रहता है, समारम्भ करता है। प्रारम्भ में रहता (वर्तता) है. संरम्भ में रहता (वर्तता) है, और समारम्भ में रहता (वर्तता) है / प्रारम्भ, संरम्भ और समारम्भ करता हुना तथा प्रारम्भ में, संरम्भ में, और समारम्भ में, प्रवर्त्तमान जीव, बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में, शोक कराने में, झराने (विलाप कराने) में, रुलाने अथवा आँसू गिरवाने में, पिटवाने में, (थकाने-हैरान करने में, डरानेधमकाने या त्रास पहुँचाने में) और परिताप (पीड़ा) देने (संतप्त करने) में प्रवृत्त होता (निमित्त बनता) है। इसलिए हे मण्डितपुत्र! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव सदा 1. यहाँ 'किलामणयाए उद्दवणयाए' इस प्रकार का अधिक पाठ मिलता है। इनका अर्थ मूलार्थ में कोष्ठक में दे दिया है।-सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org