________________ 332] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून यह क्रिया प्रमत्त संयत को भी प्रमादवश शरीर दुष्प्रयुक्त होने से लगती है। संयोजनाधिकरणक्रिया संयोजन का अर्थ है-जोड़ना / जैसे—पक्षियों और मृगादि पशुत्रों को पकड़ने के लिए पृथक्-पृथक् अवयवों को जोड़कर एक यंत्र तैयार करना, अथवा किसी भी पदार्थ में विष मिलाकर एक मिश्रित पदार्थ तैयार करना संयोजन है। ऐसी संयोजनरूप अधिकरणक्रिया। निर्वर्तनाधिकरणक्रिया = तलवार, बी, भाला आदि शस्त्रों का निर्माण निर्वर्तन है। ऐसी निर्वर्तनरूप अधिकरण क्रिया / जीवप्राषिकीअपने या दूसरे के जीव पर द्वेष करना या द्वेष करने से लगने वाली क्रिया। अजीव प्राषिकी-अजीव (चेतनारहित) पदार्थ पर द्वेष करना अथवा द्वेष करने से होने वाली क्रिया / स्वहस्तपारितापनिकी = अपने हाथ से अपने को, दूसरे को अथवा दोनों को परिताप देना-पीड़ा पहुँचाना। परहस्तपारितापनिको-दूसरे को प्रेरणा देकर या दूसरे के निमित्त से परिताप-पीड़ा पहुँचाना / स्वहस्तप्राणातिपातिकी--अपने हाथ से स्वयं अपने प्राणों का, दूसरे के प्राणों का अथवा दोनों के प्राणों का प्रतिपात-विनाश करना / परहस्तप्राणातिपातिकी दूसरे के द्वारा या दूसरे के प्राणों . का अथवा दोनों के प्राणों का अतिपात करना।' किया और वेदना में क्रिया प्रथम क्यों?क्रिया कर्म की जननी है, क्योंकि कर्म क्रिया से ही बद्ध होते हैं, अथवा जन्य और जनक में अभेद की कल्पना करने से क्रिया ही कर्म है; या जो की जाती है, वह क्रिया-एक प्रकार का कर्म ही है / तथा वेदना का अर्थ होता है-कर्म का अनुभव करना / पहले कर्म होगा, तभी उसकी वेदना--अनुभव (कर्मफल भोग) होगा। अत: वेदन कर्म (क्रिया) पूर्वक होने से न्यायतः क्रिया ही पहले होती है, वेदना उसके बाद / श्रमणनिन्थ की क्रिया:प्रमाद और योग से- सर्वथा विरत श्रमणों को भी प्रमाद और योग के निमित्त से क्रिया लगती है; इसका तात्पर्य यह है कि श्रमण जब उपयोगरहित (यतनारहित अथवा दूसरे शब्दों में, मद, विषयासक्ति, कषाय, निद्रा, विकथा आदि के वश) हो कर गमनादि क्रिया करता है, तब वह क्रिया प्रमादजन्य कहलाती है। तथा जब कोई श्वमण उपयोगयुक्त हो कर गमनादि क्रिया मन-वचन-काय (योग) से करता है तब वह ऐर्यापथिकी क्रिया योगजन्य कहलाती है। सक्रिय-अक्रिय जीवों की अन्तक्रिया के नास्तित्व-अस्तित्व का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण 11. जीवे णं भंते ! सया समियं एयति यति चलति फंदई घट्टइ खुब्भइ उदीरति तं तं भावं परिणमति ? हंता, मंडियपुत्ता ! जोवे गं सया समितं एयति जाव तं तं भावं परिणमति / [11 प्र. भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में कांपता है, विविध रूप में कांपता है. चलता है (एक स्थान से दसरे स्थान जाता है), स्पन्दन क्रिया करता (थोडा या धीमा चलता) है, घट्टित होता (सर्व दिशाओं में जाता--घूमता) है, क्षुब्ध (चंचल) होता है, उदीरित (प्रबलरूप से प्रेरित) होता या करता है; और उन-उन भावों में परिणत होता है ? 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 181-182 2. वही, अ. वृत्ति, पत्रांक 182 3. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 182 (ख) भगवती विवेचन (पं० घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 656 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org