________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३] [331 [10 प्र.] भगवन् ! श्रमण निग्रंथों के क्रिया कैसे (किस निमित्त से) हो (लग) जातो है ? [10 उ.] मण्डितपुत्र ! प्रमाद के कारण और योग (मन-वचन-काया के व्यापार = प्रवृत्ति) के निमित्त से (उनके क्रिया होती है) / इन्हीं दो कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थों को क्रिया होती (लगती) है। विवेचन--क्रियाएँ : प्रकार और तत्सम्बन्धित चर्चा-प्रस्तुत 10 सूत्रों (1 से 10 सू. तक) में भगवान् और मण्डितपुत्र गणधर के बीच हुआ क्रिया-विषयक संवाद प्रस्तुत किया गया है। इसमें क्रमश: निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया गया है (1) क्रियाएँ मूलतः पांच हैं। (2) पांचों क्रियाओं के प्रत्येक के अवान्तर भेद दो-दो हैं / (3) पहले क्रिया होती है और तत्पश्चात् वेदना; यह जैनसिद्धान्त है। (4) श्रमणनिर्ग्रन्थों के भी क्रिया होती है और वह दो कारणों से होती है-प्रमाद से और योग के निमित्त से। किया—क्रिया के सम्बन्ध में भगवती, प्रज्ञापना, और स्थानांग आदि कई शास्त्रों में यत्र-तत्र प्रचुर चर्चाएँ हैं। भगवतीसूत्र के प्रथमशतक में भी दो जगह इसके सम्बन्ध में विविध पहलुओं से चर्चा की गई है / और वहाँ प्रज्ञापनासूत्र का अतिदेश भी किया गया है, तथापि यहाँ क्रियासम्बन्धी मौलिक चर्चाएं हैं / क्रिया का अर्थ जैनदृष्टि से केवल करना ही नहीं है, अपितु उसका अर्थ है---कर्मबन्ध होने में कारणरूप चेष्टा; फिर वह चेष्टा चाहे कायिक हो, वाचिक हो या मानसिक हो, जब तक जीव क्रियारहित नहीं हो जाता, तब तक कुछ न कुछ२ कर्मबन्धनकारिणी है ही। पांच कियाओं का अर्थ-कायिकी काया में या काया से होने वाली / प्राधिकरणिकीजिससे आत्मा नरकादिदुर्गतियों में जाने का अधिकारी बनता है, ऐसा कोई अनुष्ठान-कार्य, अथवा तलवार, चक्रादि शस्त्र वगैरह अधिकरण कहलाता है। ऐसे अधिकरण में या अधिकरण से होनेवाली किया। प्राषिको-प्रद्वेष (या मत्सर) में या प्रद्वेष के निमित्त से हई अथवा प्रद्वेषरूप क्रिया। पारितापनिको-परिताप–पीडा पहुँचाने से होने वाली क्रिया। प्राणातिपातिकी-प्राणियों के प्राणों के अतिपात (वियोग या नाश) से हुई क्रिया / क्रियाओं के प्रकार की व्याख्या-प्रनुपरतकायक्रिया-प्राणातिपात आदि से सर्वथा अविरत---- त्यागवृत्तिरहित प्राणी की शारीरिकक्रिया। यह क्रिया अविरत जीवों को लगती है / दुष्प्रयुक्तकायक्रिया--दुष्टरूप (बुरी तरह) से प्रयुक्त शरीर द्वारा अथवा दुष्टप्रयोग वाले मनुष्यशरीर द्वारा हुई क्रिया। 1. (क) इसी से मिलता जुलता पाठ-प्रज्ञापनासुत्र 22 एवं ३१वें क्रियापद में देखिये / -प्रज्ञापना म. वृत्ति, आगमोदय 0 पृ. 435-453 (ख) भगवतीसुत्र शतक 1, उद्देशक 8 (ग) स्थानांगसूत्र, स्थान 3 2. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 181 3. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 181 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org