________________ 504] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [52-1 प्र.] भगवन् ! आप स्वयं इसे इस प्रकार जानते हैं, अथवा अस्वयं जानते हैं ? तथा बिना सुने ही इसे इस प्रकार जानते हैं, अथवा सुनकर जानते हैं कि 'सत् नैयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक नहीं ? यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवन होता है, असत् वैमानिकों में से नहीं ?' [52-1 उ.] गांगेय ! यह सब इस रूप में मैं स्वयं जानता हूँ, अस्वयं नहीं। तथा बिना सुने ही मैं इसे इस प्रकार जानता हूँ, सुनकर ऐसा नहीं जानता कि सत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक नहीं, यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति ? गंगेया ! केवली णं पुरथिमेणं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ, दाहिणणं एवं जहा सदुहेसए (स० 5 उ० 4 सु० 4 [2]) ' जाव निव्वुडे नाणे केवलिस्स, से ते गट्टेणं गंगेया ! एवं बुच्चइ तं चेव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति। [52-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है, कि मैं स्वयं जानता हूँ, इत्यादि, (पूर्वोक्तवत्) यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं ? / [52-2 उ.] गांगेय ! केवलज्ञानी पूर्व (दिशा) में मित (मर्यादित) भी जानते हैं, अमित (अमर्यादित) भी जानते हैं / इसी प्रकार दक्षिण (दिशा) में भी जानते हैं। इस प्रकार शब्द-उद्देशक (भगवती. श. 5, उ. 4, सू. 4-2) में कहे अनुसार कहना चाहिए / यावत् केवली का ज्ञान निरावरण होता है, इसलिए हे गांगेय ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि मैं स्वयं जानता हूँ, इत्यादि, यावत् असत् वैमानिकों में से नहीं च्यवते / विवेचन—केवलज्ञानी द्वारा समस्त स्व-प्रत्यक्ष-प्रस्तुत सूत्र 52 में बताया गया है कि भगवान् की अतिशय ज्ञानसम्पदा को सम्भावना करते हुए गांगेय ने जो प्रश्न किया है, उसके उत्तर में भगवान ने कहा- 'मैं अनुमान आदि के द्वारा नहीं, किन्तु स्वयं-पात्मा द्वारा जानता हूँ, तथा दूसरे पुरुषों के वचनों को सुनकर अथवा आगमत: सुनकर नहीं जानता, अपितु विना सुने हीप्रागमनिरपेक्ष होकर स्वयं, 'यह ऐसा है' इस प्रकार जानता है, क्योंकि केवलज्ञानी का स्वभाव पारमार्थिक प्रत्यक्ष रूप केवलज्ञान द्वारा समस्त वस्तुसमूह को प्रत्यक्ष (साक्षात्) करने का होता है। अतः भगवान् द्वारा केवलज्ञान के स्वरूप और सिद्धान्त का स्पष्टीकरण किया गया है / 2 कठिन शब्दों का भावार्थ-सयं---स्वतः प्रत्यक्षज्ञान / असयं-अस्वयं, परतः ज्ञान / अमियं-अपरिमित / नरयिक प्रादि की स्वयं उत्पत्ति 53. [1] सयं भंते ! नेरइया नेरइएसु उववज्जति ? असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति ? गंगेया ! सयं नेरइया नेरइएसु उववज्जंति, नो असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति / / [53-1 प्र. हे भगवन् ! क्या नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं या अस्वयं उत्पन्न होते हैं ? 1. देखिए–भगवती सूत्र श. 5, उ. 4, सु. 4-2 में 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 455 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org