________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [503 से नणं गंगेया! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए, अणाईए अणवयग्गे जहा पंचमे सए (स० 5 उ०९ सु० 14 [2]) जाब जे लोक्कइ से लोए, से तेणठेणं गंगेया! एवं युच्चइ जाय सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति / [51-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि नैरयिक सत् नैयिकों में उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिकों में नहीं। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं ? |51-2 उ. गांगेय ! निश्चित ही पुरुषादानीय अरह (अर्हन्) श्रीपार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत, अनादि और अनन्त कहा है इत्यादि, पंचम शतक के नौवें उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए, यावत्-जो अवलोकन किया जाए, उसे लोक कहते हैं / इस कारण हे गांगेय ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं। _ विवेचन--सत् ही उत्पन्न होने आदि का रहस्य-सत् अर्थात्-द्रव्यार्थतया विद्यमान नैरयिक आदि ही नैरयिक प्रादि में उत्पन्न होते हैं, सर्वथा असत् (अविद्यमान) द्रव्य तो कोई भी उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वह तो गधे के सींग के समान असत् है / इन जीवों में सत्व (विद्यमानत्व या अस्तित्व) जीवद्रव्य की अपेक्षा से, अथवा नारक-पर्याय की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि भावी नारक-पर्याय की अपेक्षा से द्रव्यतः नारक ही नारकों में उत्पन्न होते हैं / अथवा यहाँ से मर कर नरक में जाते समय विग्रहगति में नरकायु का उदय हो जाने से वे जीव भावनारक हो कर ही नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं।' सत्र में हो उत्पन्न होने आदि का रहस्य-जो जोव नरक में उत्पन्न होते हैं, पहले से उत्पन्न हुए सत् नैरयिकों में समुत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिकों में नहीं, क्योंकि लोक शाश्वत होने से नारक आदि जोवों का सदैव सद्भाव रहता है। र गांगेय सम्मतसिद्धान्त के द्वारा स्वकथन को पुष्टि भगवान महावीर ने 'लोक शाश्वत है' ऐसा पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ ने भी फरमाया है, यह कह कर गांगेय-मान्य सिद्धान्त के द्वारा स्वकथन की पुष्टि की है। केवलज्ञानी प्रात्मप्रत्यक्ष से सब जानते हैं - 52. [1] सयं भंते ! एतेवं जाणह उदाहु असयं ? असोच्चा एतेवं जाणह उदाहु सोच्चा 'सतो नेरइया उववज्जति, नो असतो मेरइया उववज्जति जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति? गंगेया ! सयं एतेवं जाणामि, नो असयं; असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा; 'सतो नेरइया उववज्जंति, नो असओ नेरइया उववज्जति, जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 455 2. वही, अ. वृत्ति, पत्र 455 3. वही, अ. वृत्ति, पत्र 455 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org