________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [505 [53-1 उ.] गांगेय ! नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव उववज्जति ? गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारियत्ताए, असुभाणं कम्माणं उदएणं, असुभाणं कम्माणं विवागेणं, असुभाणं कम्माणं फल विवागणं सयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति, नो प्रसयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति, से तेणठेणं गंगेया ! जाव उववज्जति / [53.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि यावत् अस्वयं नहीं उत्पन्न होते ? [53-2 उ.] गांगेय ! कर्म के उदय से, कर्मों की गुरुता के कारण, कर्मों के भारीपन से, कर्मों के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, अशुभ कर्मों के उदय से, अशुभ कर्मों के विपाक से तथा अशुभ कर्मों के फलपरिपाक से, नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं (परप्रेरित) उत्पन्न नहीं होते / इसी कारण से हे गांगेय ! यह कहा गया है कि नैरयिक नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते / विवेचन नैरयिकों आदि को स्वयं उत्पत्ति-रहस्य और कारण प्रस्तुत पांच सूत्रों (53 से 57 तक) में नरयिक से लेकर वैमानिक तक 24 दण्डकों के जीवों की स्वयं उत्पत्ति बताई गई है, अस्वयं यानो पर-प्रेरित नहीं। इस सैद्धान्तिक कथन का रहस्य यह है, कतिपय मतावलम्बी मानते हैं कि 'यह जीव अज्ञ है, अपने लिए सुख-दुःख उत्पन्न करने में असमर्थ है। ईश्वर की प्रेरणा से यह स्वर्ग अथवा नरक में जाता है। जैनसिद्धान्त से विपरीत इस मत का यहाँ खण्डन हो व कर्म करने में जैसे स्वतंत्र है, उसी प्रकार कर्मों का फल भोगने के लिए वह स्वयं स्वर्ग या नरक में जाता है, किन्तु ईश्वर के भेजने से नहीं जाता / ' 54. [1] सयं भंते ! असुरकुमारा० पुच्छा / गंगेया! सयं असुरकुमारा जाव उववज्जति, नो असयं असुरकुमारा जाव उववति / [54-1 प्र.] भंते ! असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं या अस्वयं ? इत्यादि पृच्छा / 154-1 उ. गांगेय ! असुरकुमार असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। [2] से केणटठेणं तं चेव जाव उववज्जति ? गंगेया! कम्मोदएणं कम्मविगतीए कम्मविसोहीए कम्मविसुद्धोए, सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभाणं कम्माणं विवागणं, सुभरणं कम्माणं फलविवागणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववज्जति, नो असयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववज्जंति / से तेणछैणं जाव उववज्जति / एवं जाव थणियकुमारा। 1. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः / ईश्वरप्रेरितो गच्छेत स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा / / -भगवती. अ. वत्ति, पत्र 455 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org