________________ 506] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [54-2 प्र. भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है कि यावत् अस्वयं उत्पन्न नहीं होते ? (54-2 उ.] हे गांगेय ! कर्म के उदय से, (अशुभ) कर्म के अभाव से, कर्म की विशोधि से, कमों की विशुद्धि से, शुभ कर्मों के उदय से, शुभ कर्मों के विपाक से, शुभ कर्मों के फलविपाक से असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते / इसलिए हे गांगेय ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है / इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए। 55. [1] सयं भंते ! पुढ विक्काइया० पुच्छा। गंगेया ! सयं पुढविकाइया जाव उववज्जति, नो असयं पुढविक्काइया जाव उववज्जति / [55.1 प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, या अस्वय उत्पन्न होते हैं ? [55-1 उ.] गांगेय ! पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं यावत् उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। [2] से केपट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव उववज्जति ? गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारित्ताए, सुभासुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभासुभाणं कम्माणं विवागणं, सुभासुभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं पुढविकाइया जाव उववज्जति, नो असयं पुढविकाइया जाव उववति / से तेण→णं जाव उववज्जति / [55.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि पृथ्वी कायिक स्वयं उत्पन्न होते हैं, इत्यादि? [55-2 उ.] गांगेय ! कर्म के उदय से, कर्मों की गुरुता से, कर्म के भारीपन से, कर्म के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, शुभाशुभ कर्मों के उदय से, शुभाशुभ कमों के विपाक से, शुभाशुभ कर्मों के फल-विपाक से पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। इसलिए हे गांगेय ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है / 56. एवं जाव मणुस्सा। [56] इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिए। 57. वाणमंतर-जोइ सिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा / से तेणट्टेणं गंगेया ! एवं बुच्चइसयं वेमाणिया जाव उववज्जंति, नो असयं जाव उववज्जति / [57] जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी जानना चाहिए / इसी कारण से, हे गांगेय ! मैं ऐसा कहता हूँ कि यावत् वैमानिक, वैमानिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। ___ जीवों की नारक, देव आदि रूप में स्वयं उत्पत्ति के कारण-(१) कर्मोदयवश, (2) कर्मों की गुरुता से, (3) कर्मों के भारीपन से, (4) कर्मों के गुरुत्व और भारीपन की अतिप्रकर्षावस्था से, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org