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________________ तीसइमं सयं : तीसवाँ शतक प्राथमिक भगवतीसूत्र का यह तीसत्रां समवसरणशतक है। यहाँ समवसरण का अर्थ 'तीर्थकर भगवान की धर्मसभा' नहीं, किन्तु क्रयचित् समानता के कारण विभिन्न परिणाम वाले जीवों का एकत्र अवतरण समवसरण है। वास्तव में प्रस्तुत शतक में विभिन्न मतों या दर्शनों के अर्थ में समवसरण शब्द प्रयुक्त किया गया है / * प्राचीनकाल में भारतवर्ष में विभिन्न मत, वाद, दर्शन, मान्यता या परम्पराएँ प्रचलित थीं ! परस्पर सहिष्णुता और समन्वयदृष्टि न होने के कारण विभिन्न दर्शन एवं मत के अनुगामियों का संघर्ष हो जाता था / वह राग-द्वेषवर्द्धक या कषायवर्द्धक बन जाता था / उससे सत्य की तह में पहुंचने की अपेक्षा विभिन्न मतवादी कलह, विवाद और ईर्ष्या की आग भड़काते रहते थे। श्रमण भगवान् महावीर अनेकान्तदृष्टि से अथवा सापेक्षदृष्टि से विभिन्न मतों और वादों में निहित सत्य को ग्रहण करते थे। उनका उपदेश भी यही था कि प्रत्येक वस्तु को विभिन्न पहलुओं से जांचो-परखो और एकान्तवाद, हठाग्रह या पूर्वाग्रह छोड़ कर सत्य को पकड़ो। इससे रागद्वेष या कषाय का भी शमन होगा, यात्मिक शान्ति का प्रादुर्भाव होगा और नमता की साधना में तेजस्विता पाएगी / 3 इसी दृष्टिकोण से श्रमण भगवान् महावीर ने 'समवसरण' का प्रतिपादन इस शतक में किया है। * नमवसरण के वैसे तो अनेक भेद हो सकते हैं, परन्तु भ. महावीर ने यहाँ मुख्यतया चार भेद किये हैं—क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी। 1 मा प्रतीत होता है कि श्रमण भगवान् महावीर के युग में जो-जो मत या वाद प्रचलित थे, उन सबका पूर्वोक्तचार प्रकारों में समावेश किया गया है / यथा-ग्रात्मा-परमात्मा, स्वर्गनरक, पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व को मानने वाले सभी दर्शन क्रियावादियों में परिगणित किये जा सकते हैं, उसी प्रकार आत्मा को न मानने वाले चार्वाक या उसे क्षणिक मानने वाले बौद्ध आदि दर्शन प्रक्रियावादी कहे जा सकते हैं। * सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के बारहवें समवसरण अध्ययन में इन मतों का संक्षिप्त वर्णन है / आचारांग-मूत्र (अ. 1 उ. 1) की शीलांकाचार्यत्ति में उनके भेद-प्रभेदों का वर्णन है / परन्तु उस पर से यह स्पष्ट नहीं जाना जा सकता कि उन सबकी क्या मान्यता थी? * प्रायः प्रागमों में अनेक स्थलों पर इन चारों वादियों को एकान्तवादी होने से मिथ्यादष्टि कहा है / क्रियावादी एकान्तरूप से जीवादिपदार्थों के अस्तित्व को ही मानते हैं, प्रक्रियावादी इनका अस्तित्व ही नहीं मानते, अज्ञानवादी अजान को एवं विनयवादी विनय को ही एकान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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