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________________ 316] কাসকিন 86. एवं वाहिणुत्तरायतानो वि / [86] इसी प्रकार दक्षिण और उत्तर में लम्बी (अलोकाकाश श्रेणियाँ प्रदेशार्थ रूप से) समझनी चाहिए। 87. उड्डमहायताओ० पुच्छा। गोयमा! सिय संखेज्जानो, सिय असंखेज्जायो, सिय अणंतानो। [87 प्र. भगवन् ! ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी (अलोकाकाश-श्रेणियाँ प्रदेशार्थ रूप से) संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [87 उ.] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात हैं, कदाचित् असंख्यात हैं और कदाचित् अनन्त हैं। विवेचन-प्रदेशार्थ रूप से श्रेणियों के प्रदेश-सू. 81-82 में पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात तथा असंख्यात हैं, इस विषय में चूर्णिकार का आशय यह है कि वृत्ताकार लोक के दन्तक, जो अलोक में गए हुए हैं, उनकी श्रेणियाँ संख्यातप्रदेशात्मक हैं तथा अन्य श्रेणियाँ असंख्यात-प्रदेशात्मक हैं। प्राचीन टीकाकार का कथन है कि लोकाकाश वृत्ताकार होने से पर्यन्तवर्ती श्रेणियाँ संख्यात-प्रदेश की होती हैं / वे अनन्त नहीं, क्योंकि लोकाकाश के प्रदेश अनन्त नहीं हैं। लोकाकाश की ऊर्ध्वलोक से अधोलोक-पर्यन्त ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणी असंख्यातप्रदेश की है, किन्तु संख्यात या अनन्त प्रदेश की नहीं हैं। अधोलोक के कोण से या ब्रह्मदेवलोक के तिरछे प्रान्तभाग से जो श्रेणियाँ निकलती हैं, वे भी इस सूत्र के कथनानुसार संख्यात प्रदेश की नहीं होती किन्तु असंख्यात प्रदेश की ही होती हैं / प्रलोकाकाश की संख्यात और असंख्यात प्रदेश की जो श्रेणियाँ कही हैं, वे लोकमध्यवर्ती क्षुल्लक प्रतर के निकट आई हुई, ऊर्ध्व-अधो लम्बी अधोलोक की श्रेणियों की अपेक्षा से समझनी चाहिए / इनमें से जो प्रारम्भ में आई हुई श्रेणियाँ हैं, वे संख्यात-प्रदेशी हैं और उसके पश्चात् पाई हुई श्रेणियां असंख्यात-प्रदेशी हैं। तिरछी लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियाँ तो अनन्तप्रदेशात्मक ही होती हैं।' सामान्य श्रेणियों तथा लोक-अलोकाकाशश्रेरिणयों में यथायोग्य सादि-सान्तादिप्ररूपणा 88. सेढीप्रोणं भंते ! कि सादीयाओ सपज्जवसियानो, सादीयाओअपज्जवसिताओ, अणादीयाओ सपज्जवसियाओ, अणादीयानो अपज्जवसियाओ? गोयमा! नो सादीयानो सपज्जवसियओ, नो सादीयाओ अपज्जवसियानो, नो अणादीयाओ सपज्जवसियानो, प्रणादीयानो अपज्जवसियानो। 88 प्र.] भगवन् ! क्या श्रेणियाँ सादि-सपर्यवसित (पादि और अन्त-सहित) हैं, अथवा सादि-अपर्यवसित (आदि-सहित और अन्त-रहित) हैं या वे अनादि-सपर्यवसित (आदि-रहित और अन्तसहित) हैं, अथवा अनादि-अपर्यवसित ( आदि और अन्त से रहित) हैं। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 965 (ख) श्रीमद्भगवती सूत्रम् (गुज. अनु.) खण्ड 4, पृ. 211-12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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