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________________ पन्द्रहवां शतक] 'तदनन्तर वे सभी वणिक् एक दूसरे के साथ इस बात के लिए सहमत हो गए। फिर उन्होंने उस वल्मीक के तृतीय शिखर को भी तोड़ डाला / उसमें से उन्हें विमल, निर्मल, अत्यन्त गोल, निष्कल (दूषणरहित) महान् अर्थ वाले, महामूल्यवान्, महार्ह (अत्यन्त योग्य), उदार मणिरत्न प्राप्त हुए। 'इन्हें देख कर वे वणिक अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हए। उन्होंने मणियों से अपने बर्तन भर लिये, फिर उन्होंने अपने वाहन भी भर लिये। 'तत्पश्चात् वे वणिक् चौथी बार भी परस्पर विचार-विमर्श करने लगे हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर उत्तम जल प्राप्त हुआ, दूसरे शिखर को तोड़ने से उदार स्वर्ण रत्न प्राप्त हुआ, फिर तीसरे शिखर को तोड़ने से हमें उदार मणिरत्न प्राप्त हुए / अतः अब हमें इस वल्मीक के चौथे शिखर को भी तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हे देवानुप्रियो ! हमें उसमें से उत्तम, महामूल्यवान्, महार्ह (अत्यन्त योग्य) एवं उदार वज्ररत्न प्राप्त होंगे। 'यह सुन कर उन वणिकों में एक वणिक्' जो उन सबका हितैषी, सुखकामी, पथ्यकामी, अनुकम्पक और निःश्रेयसकारी तथा हित-सुख-निःश्रेयसकामी था, उसने अपने उन साथी वणिकों से कहा--देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से स्वच्छ यावत् उदार जल मिला यावत् तीसरे शिखर को तोड़ने से उदार मणिरत्न प्राप्त हुए। अतः अब बस कीजिए। अपने लिए इतना ही पर्याप्त है। अब यह चौथा शिखर मत तोड़ो। कदाचित् चौथा शिखर तोड़ना हमारे लिये उपद्रवकारी (उपसर्गयुक्त) हो सकता है। 'उस समय हितैषी, सुखकामी यावत् हित-सुख-निःश्रेयसकामी उस वणिक के इस कथन यावत् प्ररूपण पर उन वणिकों ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की / उक्त हितैषी वणिक को हितकर बात पर श्रद्धा यावत् रुचि न करके उन्होंने उस वल्मीक के चतुर्थ शिखर को भी तोड़ डाला। शिखर टूटते ही वहाँ उन्हें एक दृष्टिविष सर्प का स्पर्श हुया, जो उनविषवाला, प्रचण्ड विषधर, घोरविषयुक्त, महाविध से युक्त, अतिकाय (स्थूल शरीर वाला), महाकाय, मसि (स्याही) और मूषा के समान काला, दृष्टि के विष से रोषपूर्ण, अंजन-पुंज (काजल के ढेर) के समान कान्ति वाला, लाल-लाल आँखों वाला, चपल एवं चलती हुई दो जिह्वा वाला, पृथ्वीतल की वेणी के समान, उत्कट स्पष्ट कुटिल जटिल कर्कश विकट फटाटोप करने में दक्ष, लोहार की धौंकनी (धम्मण) के समान धमधमायमान (सू-सं) शब्द करने वाला, अप्रत्याशित (अनाकलित) प्रचण्ड एवं तीव्र रोष वाला, कुक्कुर के मुख से भसने के समान, त्वरित चपल एवं धम-धम शब्द वाला था। तत्पश्चात् उस दृष्टिविष सर्प का उन वणिकों से स्पर्श होते ही वह अत्यन्त कुपित हुअा यावत् मिसमिसाट शब्द करता हुआ शनैः शनैः राहट करता हश्रा वल्मीक के शिखर-तल पर चढ गया। फिर उसने सर्य की ओर टकटकी लगा कर देख।। (सूर्य की ओर से दृष्टि हटा कर) उसने उस वणिक्वर्ग की ओर अनिमेष दृष्टि से चारों ओर देखा। उस दृष्टिविष सर्प द्वारा वे वणिक सब ओर अनिमेष दृष्टि से देखे जाने पर किराने के सामान आदि माल एवं बर्तनों व उपकरणों सहित एक ही प्रहार से कूटाघात (पाषाणमय महायन्त्र के आघात) के समान तत्काल जला कर राख का ढेर कर दिये गए / उन वणिकों में से जो वणिक उन वणिकों का हितकामी यावत् हित-सुख-निःश्रेयसकामी था, उस पर नागदेवता ने अनुकम्पायुक्त होकर भण्डोपकरण सहित उसे अपने नगर में पहुंचा दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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