________________ 464] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र _ 'जल समाप्त हो जाने से तृषा से पीडित वे वणिक् एक दुसरे को बुला कर इस प्रकार कहने लगे-'देवानुप्रियो ! इस अग्राम्य यावत् महा-अटवी के कुछ भाग में पहुँचते ही हमारे साथ में पहले से लिया पानी क्रमशः पीते-पीते समाप्त हो गया है, इसलिए अब हमें इसी अग्राम्य यावत् अटवी में चारों ओर पानी की शोध-खोज करना श्रेयस्कर है।' इस प्रकार विचार करके उन बणिकों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और उस ग्रामरहित यावत् अटवी में वे सब चारों ओर पानी की शोधखोज करने लगे। सब ओर पानी को खोज करते हुए वे एक महान् वनखण्ड में पहुँचे, जो श्याम, श्याम-पाभा से युक्त यावत् प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत सन्दर था। उस वनखण्ड के ठीक मध्यभाग में उन्होंने एक बड़ा वल्मीक (बांबी) देखा। उस वल्मीक के सिंह के स्कन्ध के केसराल के समान ऊचे उठ हए चार शिखराकार-शरीर थे। वे शिखर तिछं फैले हए थे / नीचे अद्धसप के समान (नीचे से विस्तीर्ण और ऊपर से संचित) थे। अर्द्धसकार वल्मोक प्राडादोत्पादक यावत सुन्दर थे। 'उस वल्मीक को देखकर वे वणिक हर्षित और सन्तुष्ट हो कर और परस्पर एक दूसरे को बला कर यों कहने लगे--'हे देवानुप्रियो! इस अग्राम्य यावत अटवो में सब पोर पानी की शोधखोज करते हुए हमें यह महान वनखण्ड मिला है, जो श्याम एवं श्याम-पाभा के समान है, इत्यादि / इस वल्मीक के चार ऊँचे उठे हुए यावत् सुन्दर शिखर हैं। इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है; जिससे हमें यहाँ (गर्त में) बहुत-सा उत्तम उदक मिलेगा। तब वे सब वाणक परस्पर एक दसरे की बात स्वीकार करते है और फिर उस प्रथम शिखर को तोड़ते हैं, जिसमें से उन्हें स्वच्छ, पथ्य-कारक, उत्तम, हल्का और स्फटिक के वर्ण जैसा श्वेत बहुत-सा श्रेष्ठ जल (उदकरत्न) प्राप्त हुआ। 'इसके बाद वे वणिक् हर्षित और सन्तुष्ट हुए। उन्होंने वह पानी पिया, अपने बैलों आदि वाहनों को पिलाया और पानी के बर्तन भर लिये। 'तत्पश्चत् उन्होंने दूसरी बार भी परस्पर इस प्रकार वार्तालाप किया हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से बहुत-सा उत्तम जल प्राप्त हुआ है। अतः देवानुप्रियो ! अब हमें इस वल्मीक के द्वितीय शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हमें पर्याप्त उत्तम स्वर्ण (स्वर्णरत्न) प्राप्त हो / इस पर सभी वणिकों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और उन्होंने उस बल्मीक के द्वितीय शिखर को भी तोडा। उसमें से उन्हें स्वच्छ उत्तम जाति का. ताप को सहन करने योग्य महार्घ--(महामूल्यवान्), महार्ह (अत्यन्त योग्य) पर्याप्त स्वर्णरत्न मिला / 'स्वर्ण प्राप्त होने से वे बंणिक हर्षित और सन्तुष्ट हुए। फिर उन्होंने अपने बर्तन भर लिये और वाहनों (बैलगाड़ियों) को भी भर लिया। फिर तीसरी बार भी उन्होंने परस्पर इस प्रकार परामर्श किया-देवानुप्रियो ! हमने इस वल्मोक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर उत्तम जल प्राप्त किया, फिर दूसरे शिखर को तोड़ने से विपुल उत्तम स्वर्ण प्राप्त किया। अतः हे देवानुप्रियो ! हमें अब इस वल्मोक के तृतीय शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है / जिससे कि हमें वहाँ उदार मणिरत्न प्राप्त हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org