________________ पन्द्रहवां शतक] पढमाए वपूए भिन्नाए ओराले उदगरयणे जाव तरचाए वपूए भिन्नाए ओराले मणिरयणे अस्सादिए, तं होउ अलाहि पज्जत्तं णे, एसा चउत्थी वपू मा भिज्जउ, चउत्थी णं वयू सउवसम्गा यावि होज्जा / "तए णं ते वणिया तस्स वणियस्स हियकामगस्स सुहकाम जाव हिय-सुह-निस्सेसकामगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव परवेमाणस्स एतम नो सद्दहंति जाव नो रोयेति, एयम असदहमाणा जाव अरोयेमाणा तस्त वम्मीयस्स चउत्थं पि वपु भिति, ते णं तत्थ उगविसं चंडविसं घोरविसं महाविसं अतिकायमहाकायं मसि.मूसाकालगं नयणविसरोसपुष्णं अंजणपुजनिगरप्पगासं रत्तच्छं जमलजुयलचंचलचलंतजोहं धरणितलवेणिभूयं उक्कड फुडकुडिलजडुलकवखडविकडफडाडोवकरणदच्छं लोहागरधम्ममाणधमधतघोसं अणालियचंतिम्वरोसं समुहि तुरियं चबलं धमतं दिट्टीविसं सप्पं संघट्टति / तए णं से विट्ठीविसे सस्पे तेहि वणिएहि संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सगियं सणियं उति, उ०२ सरस रसरस्स बम्मीयस्स सिहरतलं दहति, सर० 2 0 2 आदिच्चं णिज्झाति, प्रा० णि 2 ते वणिए अणिमिसाए दिट्टीए सन्यतो समंता समभिलोएति / तए णं ते वणिया तेणं दिट्टीविसेणं सप्पेणं अणिमिसाए दिट्टीए सवसओ समंता समभिलोइया समाणा खिप्पामेव सभंडमत्तोवारणमाया एगाहच्चं कडाहच्चं भासरासीकया यावि होत्था : तत्थ णं जे से वणिए तेसि वणियाणं हियकामए जाव हिय-सुह-निस्सेसकामए से णं आणुकंपिताए देवयाए सभंडमत्तोवकरणमायाए नियगं नगर साहिए / "एवामेव प्राणदा ! तव वि धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं समणेण नायपुत्तेणं अोराले परियाए अस्मादिए, ओराला कित्ति-वण्ण-सइ-सिलोगा सदेवमणुयासुरे लोए पुवंति गुवंति तुर्वति इति खलु समणे भगवं महावीरे, इति खलु समणे भगवं महाबीरे'। तंजदि मे से प्रज्ज किचि बदति तो गं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाक्चं भासरासि करेमि जहा वा वालेणं ते वणिया / तुमं च णं आगंदा! सारक्खामि संगोवामि जहा वा से बणिए तेसि वणियाणं हितकामए जाव निस्सेसकामए आणुकंपियाए देवयाए सभंडमत्तोवगरण जाव साहिए। तं गच्छ गं तुमं आणंदा ! तव धम्मायरियस धम्मोवदेसगस्स समणस्स णातपुत्तस्स एयम परिकहेहि।" [65] तदनन्तर मखलिपुत्र गोशालक ने आनन्द स्थविर से इस प्रकार कहा 'हे अानन्द ! आज से बहुत वर्षों (काल) पहले की बात है / कई उच्च एवं नीची स्थिति के धनार्थी, धनलोलुप, धन के गवेषक, अर्थाकांक्षी, अधिषासु वणिक. धन की खोज में नाना प्रकार के किराने की सुन्दर वस्तुएँ, अनेक गाड़े-गाड़ियों में भर कर और पर्याप्त भोजन-पानरूप पाथेय ले कर ग्रामरहित, जल-प्रवाह से रहित, सार्थ आदि के आगमन से विहीन तथा लम्बे पथ वाली एक महाअटवी में प्रविष्ट हुए। 'ग्रामरहित (अथवा अनिष्ट), जल-प्रवाहरहित, सार्थों के आवागमन से रहित उस दीर्घमार्ग वाली अटवी के कुछ भाग में, उन वणिकों के पहुंचने के बाद, अपने साथ पहले का लिया हुआ पानी (पेयजल) क्रमश: पीते-पीते समाप्त हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org