________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [261 . [61] पर्याप्त मनुष्यों के सम्बन्ध में कथन सकायिक जीवों (सू. 46 में कथित) की तरह करना चाहिए। 62. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया (सु. 57) / [62] पर्याप्त वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिक जीवों (सू. 57) की तरह समझना चाहिए / 63. अपज्जत्ता णं भंते ! जीवा कि नाणो 2? तिषिण नाणा, तिणि अण्णाणा भयणाए। [63 प्र. भगवन् ! अपर्याप्तक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [63 उ. उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं / 64. [1] अपज्जत्ता णं भंते ! नेतिया कि नाणी, अन्नाणी ? तिणि नाणा नियमा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए। [64-1 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त नैरयिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [64-1 उ.] गौतम ! उनमें तीन ज्ञान नियमत: होते हैं अथवा तीन अज्ञान भजना से होते हैं। [2] एवं जाव थणियकुमारा। [64-2] नैरयिक जीवों की तरह यावत् अपर्याप्त स्तनितकुमार देवों तक इसी प्रकार कथन करना चाहिए। 65. पुढविक्काइया जाव वणस्सतिकाइया जहा एगिदिया। [65] (अपर्याप्त) पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों तक का कथन एकेन्द्रिय जीवों की तरह करना चाहिए। 66. [1] बेंदिया णं० पुच्छा। दो नाणा, दो अण्णाणा णियमा / [66-1 प्र. भगवन् ! अपर्याप्त द्वीन्द्रिय ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [66.1 उ.] गौतम ! इनमें दो ज्ञान अथवा दो अज्ञान नियमतः होते हैं। [2] एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं / [66-2] इसी प्रकार यावत् (अपर्याप्त) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक तक जानना चाहिए। 67. अपज्जत्तगा णं भंते ! मणुस्सा कि नाणी, अनाणी ? तिणि नाणाई भयणाए, दो प्राणाणाई नियमा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org