________________ 202] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3 उ.] (हाँ, गौतम ! ) जैसे नागों के विषय में (कहा, उसी प्रकार इनके विषय में भी कहना चाहिए। 4. देवे णं भंते ! महड्ढीए जाव बिसरीरेसु रुवखेसु उववज्जेज्जा ? हंता, उववज्जेज्जा / एवं चेव / नवरं इमं नाणतं-जाव सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिते यावि भवेज्जा? हंता, भवेज्जा / सेसं तं चेव जाव अंतं करेज्जा / [8 प्र.] भगवन् ! माँ द्धक यावत् महासुखवाला देव (च्यव कर क्या) द्विशरीरी वृक्षों में उत्पन्न होता है ? [4 उ.] हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है / उसी प्रकार (पूर्ववत् सारा कथन करना); विशेषता इतनी ही है कि (जिस वृक्ष में वह उत्पन्न होता है, वह अचित आदि के अतिरिक्त) यावत् सन्निहित प्रातिहारिक होता है, तथा उस वृक्ष की पीठिका (चबूतरा आदि) गोबर आदि से लीपी हुई और खड़िया मिट्टी आदि द्वारा उसकी दीवार आदि पोती (सफेदी को) हुई होने से वह पूजित (महित) होता है / शेष समस्त कथन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत् वह (मनुष्य-भव धारण करके) संसार का अन्त करता है। विवेचन–महद्धिक देव की नाग-मणि-वृक्षादि में उत्पत्ति एवं प्रभाव-सम्बन्धी चर्चा---प्रस्तुत चार सूत्रों में महद्धिक देवों की नाग आदि भव में उत्पत्ति, महिमा एवं सिद्धि प्रादि के विषय में चर्चा की गई है। बिसरीरेसु.."उववज्जेज्जा : प्राशय-जो दो शरीरों में, अर्थात् --एक शरीर (नाग अादि का भव) छोड़ कर तदनन्तर दूसरे शरीर अर्थात्--मनुष्य शरीर को पाकर सिद्ध हों, ऐसे दा शरीरों में उत्पन्न होते हैं / निष्कर्ष यह है कि ऐसे द्विशरीरो नाग, मणि या वृक्ष अपना एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर मनुष्य का ही पाते हैं, जिससे वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं।' __ महिमा-नाग, मणि या वृक्ष के भव में भी वे देवाधिष्ठित होते हैं / इस कारण नागादि के भव में जिस क्षेत्र में वे उत्पन्न होते हैं, वहाँ उनको अर्चा, वन्दना, पूजा, सत्कार और सम्मान होता है। वे दिव्य (देवाधिष्ठित), प्रधान (अपनी जाति में प्रधानता पान वाले), सत्य स्वप्नादि द्वारा सच्चा भविष्यकथन करने वाले होते हैं उनकी सेवा सत्य-सफल होती है, क्योंकि वे पूर्वसगतिक प्रातिहारिक (प्रतिक्षण पहरेदार की तरह रक्षक) होकर उनके सन्निहित-अत्यन्त निकट रहत हैं / जो वृक्ष होता है, वह भी देवाधिष्ठित, विशिष्ट और बद्धपीठ हाता है, जनता उसका महिमा, पूजा आदि करती है और वह उसकी पीठिका (चबूतरे) को लीप-पोत कर स्वच्छ रखता है।' सन्निहियपाडिहरे-जिसके निकटवर्ती प्रातिहार्य-पूर्व संगतिक आदि देवों द्वारा कृत प्रतिहारकर्मरक्षणादि कर्म होता है / 1. भगवतो. अ. बत्ति, पत्र 582 2. वही, पत्र 582 3, वहीं, पत्र 582 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org