________________ मंतव्य 224, उत्थानादि युक्त जीव द्वारा आत्मभाब से जीव भाव का प्रकटीकरण 245, उस्थानादि विशेषण संसारी जीव के हैं 246, आत्मभाष का अर्थ 246, पर्यव-पर्याय 246, आकाशास्तिकाय के भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का निर्णय 246, देश-प्रदेश 247, जीब-अजीव के देश-प्रदेशों का पृथक कथन क्यों ? 247, स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश, परमाणु पुद्गल 247, अरूपी के दस भेद के बदले पाँच भेद ही क्यों ? 247 अद्धासमय 248, अलोकाकाश 248, लोकाकाश 248, धर्मास्तिकाय ग्रादि का प्रमाण 248, धर्मास्तिकाय आदि को स्पर्शना 245, तीनों लोकों द्वारा धर्मास्तिकाय का स्पर्श कितना और क्यों ? 251, तृतीय शतक 253-399 प्राथमिक 252-253 संग्रहणी गाथा 254 प्रथम उद्देशक-विकुर्वणा (सूत्र 2-65) 254-300 प्रथम उद्देशक का उपोद्घात 254, चमरेन्द्र और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि प्रादि तथा विकूर्वणा शक्ति 255, 'गोतम' संबोधन 260, दो दृष्टान्तों द्वारा स्पष्टीकरण 261, विक्रिया-विकुर्वणा 261, वैक्रिय. समुद्घात में रत्नादि औदारिक पुदगलों का ग्रहण क्यों ? 261, 'प्राइण्णे' 'वितिकिछणे' आदि शब्दों के अर्थ 261, चमरेन्द्र प्रादि की विकुर्वणा शक्ति प्रयोग रहित 262, देवनिकाय में दस कोटि के देव 262, अग्रमहिषियाँ 262, वैरोचनेन्द्र बलि और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि तथा बिर्वणाशक्ति 262 वैरोचनेन्द्र का परिचय 264, नागकूमारेन्द्र धरण और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणा शक्ति 264, नागकुमारों के इन्द्र धरणेन्द्र का परिचय 265, शेष भवनपति, वाणव्यंतर एवं ज्योतिष्क देवों के इन्द्रों और उनके अधीनस्थ देव वर्ग की ऋद्धि, विकुणाशक्ति आदि का निरूपण 265 भवनपति देवों के बीस इन्द्र 266, भवन संख्या 266, सामानिक देव-संख्या 266, आत्मरक्षक देव संख्या 266, अग्रमहिषियों की संख्या 266, व्यंतर देवों के सोलह इन्द्र 266, व्यन्तर इन्द्रों का परिवार 266, ज्योतिष्केन्द्र परिवार 266, बैक्रिय शक्ति 267, दो गणधरों की पृच्छा 267, शकेन्द्र, तिष्यक देव तथा शत्र के सामानिक देवों की ऋद्धि, विकुर्वणा शक्ति प्रादि का निरूपण 267, शकेन्द्र का परिचय 270, तिष्यक अनगार की सामानिक देव रूप में उत्पत्ति-प्रक्रिया 271, 'लखे पत्ते अभिसमन्नागते' का विशेषार्थ 271, 'जहेव चमरस्स' का नाशय 271, कठिन शब्दों के अर्थ 271, ईशानेन्द्र कुरुदत्तपुत्र देव तथा सनत्कुमारेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के इन्द्रों एवं उनके सामानिकादि देव वर्ष की विकुर्वणा शक्ति प्रादि का प्ररुपण 271, कुरुदत्त पुत्र अनगार के ईशान-सामानिक होने की प्रक्रिया 274, ईशानेन्द्र और शक्रेन्द्र में समानता और विशेषता 275, नागकुमार से अच्युत तक के इन्द्रादि की वैक्रियशक्ति 275, सनत्कुमार देवलोक में देवी कहां से ? 275, देवलोकों के विमानों की संख्या 275, सामानिक देवों की संख्या 275, 'पगिझिय' यादि कठिन शब्दों के अर्थ 276, मोकानगरी से विहार और ईशानन्द्र द्वारा भगवत् वन्दन 276, राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव के भगवत्सेवा में प्रागमन-वृत्तान्त का प्रतिदेश 277, कुटाकारशालादृष्टान्तपूर्वक ईशानेन्द्र ऋद्धि को तत्शरीरानुप्रविष्ट-प्ररूपणा 277, कूटाकारशाला दृष्टान्त 278, ईशानेन्द्र का पूर्वभवः तामली का संकल्प और प्राणामाप्रवज्या ग्रहण 278, तामलित्ती-ताम्रलिप्ती 282, मौर्यपुत्र तामली 282, कठिन शब्दों के विशेष अर्थ 282, प्रव्रज्या का नाम प्राणामा रखने का कारण 282, 'प्राणामा' का शब्दश: अर्थ 283, कठिन शब्दों के अर्थ 283, बालतपस्वी तामली द्वारा पादपोपगमन अनशन-ग्रहण 284, संलेखना तप 285, पादपोपगमन अनशन 285, बलिचंचावासी देवगण द्वारा इन्द्र बनने की विनति : तामली तापस द्वारा [ 32 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org