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________________ [611 सत्तरहयां शतक : उद्देशक 2] हैं / सोना, बैठना आदि क्रियाएँ मूतं पासन आदि पर हो हो सकती हैं। इसलिए अमृतं धर्म, अधर्म आदि पर सोना-बैठना प्रादि क्रियाएँ अशक्य बताई हैं।' धर्म, अधर्म और धर्माधर्म का विवक्षित प्रर्थ-धर्म शब्द से यहाँ सर्वविरति चारित्रधर्म, अधर्म शब्द से अविरति और धर्माधर्म शब्द से विरति अविरति या देशविरति अर्थ विवक्षित है। दुसरे शब्दों में इन्हें संयम, असंयम और संयमासंयम भी कहा जा सकता है। ____ कठिनशब्दार्थ चक्किया-समर्थ है / आसइत्तए --बैठने में / तुयट्टित्तए-करवट बदलने या लेटने में या सोने में / अन्यतीथिक मत के निराकरणपूर्वक श्रमणादि में, जीवों में तथा चौबीस दण्डकों में बाल, पण्डित और बाल-पण्डित को प्ररूपणा / 10. अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेति-'एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासया बालपंडिया; जस्स णं एगपाणाए वि दंडे अनिक्खित्ते से णं एगंतबाले त्ति वत्तब्वं सिया' से कहमेयं भंते ! एवं ? __ गोयमा ! जणं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव वत्तव्वं सिया, जे ते एवमासु, मिच्छं ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव पवेमि-एवं खलु समणा पंडिया; समणोवासगा बालपंडिया; जस्स णं एगपाणाए वि दंडे निक्खित्ते से णं नो एगंतबाले ति बत्तव्य सिया। . [10 प्र.] भगवन् ! अन्यतीधिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि (हमारे मत में) ऐसा है कि श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बाल-पण्डित हैं और जिस मनुष्य ने एक भी प्राणी का दण्ड (बध) अनिक्षिप्त (छोड़ा हुया नहीं) है, उसे 'एकान्त बाल' कहना चाहिए; तो हे भगवन् ! अन्यतीथिकों का यह कथन कैसे यथार्थ हो सकता है ? [10 उ.] गौतम ! अन्यतीथिकों ने जो यह कहा है कि 'श्रमण पण्डित हैं' ....... यावत् 'एकान्त वाल कहा जा सकता है, उनका यह कथन मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बाल-पण्डित हैं, परन्तु जिस जीव ने एक भी प्राणी के वध को निक्षिप्त किया (त्यागा) है, उसे 'एकान्त बाल' नहीं कहा जा सकता; (अपितु उसे 'बाल-पण्डित' कहा जा स 11. जीवा णं भंते ! कि बाला, पंडिया, बालपंडिया ? गोयमा! जीवा बाला वि, पंडिया वि, बालपंडिया वि / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 723 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2607 2. वही, भा. 5, पृ. 2607 3. (क) वही, भा. 5, पृ, 2606 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 723 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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