________________ 610 [व्याख्याप्राप्तिसूत्र स्वीकार करके विचरता है, किन्तु संयतासंयत जीव, धर्माधर्म में स्थित होता है और धर्माधर्म (देशविरति) को स्वीकार करके विचरता है / इसलिए हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा गया है / 4. जीवा णं भंते ! कि धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया धम्माधम्मे ठिया? गोयमा ! जीवा धम्मे वि ठिया, प्रधम्मे वि ठिया, धम्माधम्मे विठिया। [4 प्र.] भगवन् ! क्या जीव धर्म में स्थित होते हैं, अधर्म में स्थित होते हैं अथवा धर्माधर्म में स्थित होते हैं ?' [4 उ.] गौतम ! जीव, धर्म में भी स्थित होते हैं, अधर्म में भी स्थित होते हैं और धर्माधर्म में भी स्थित होते हैं। 5. नेरतिया गं पुच्छा। गोयमा! रतिया नो धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, नो धम्माधम्मे लिया। [5 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव, क्या धर्म में स्थित होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [5 उ.] नैरयिक न तो धर्म में स्थित हैं और न धर्माधर्म में स्थित होते हैं, किन्तु वे अधर्म में स्थित हैं। 6. एवं जाव चरिदियाणं / [6] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए / 7. पंचिदियतिरिक्खजोणिया पं० पुच्छा। गोयमा ! पंचिदियतिरिखजोणिया नो धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, धम्माधम्मे विठिया। [7 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव क्या धर्म में स्थित हैं ? ...... इत्यादि प्रश्न / [7 उ.] गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव धर्म में स्थित नहीं हैं, वे अधर्म में स्थित हैं, और धर्माधर्म में भी स्थित हैं। 8. मणुस्सा जहा जीवा / [8] मनुष्यों के विषय में जीवों (सामान्य जीवों) के समान जानना चाहिए। 9. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरइया। [9] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में नयिकों के समान जानना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 1 से 8 तक) में जीवों के संयत, असंयत एवं संयतासंयत होने की तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के धर्म, अधर्म या धर्माधर्म में स्थित होने की चर्चा-विचारणा की गई है। धर्म-अधर्म आदि पर बैठना, सोना आदि-धर्म, अधर्म और धर्माधर्म, ये तीनों अमूर्त पदार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org