________________ पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक 4] [329 [15 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [15 उ.] गौतम ! (वह प्रदेशार्थरूप से) कृतयुग्म है, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है। 16. एवं जाव अद्धासमये / [16] इसी प्रकार यावत् अद्धा-समय तक जानना चाहिए। विवेचन -निष्कर्ष और विश्लेषण-धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्यरूप से एक-एक हैं। इसलिए उनमें चार-चार का अपहार नहीं होता, केवल एक ही अवस्थित रहता है / इसलिये ये तीनों कल्योजरूप हैं। जीवास्तिकाय अनन्त होने से कृतयुग्म है / पुद्गलास्तिकाय यद्यपि अनन्त है, तथापि उसके संघात (मिलने) और भेद (पृथक होने) के कारण उसकी अनन्तता अनवस्थित है, इसलिए वह कृतयुग्मादि चारों राशिरूप होता है। प्रद्धासमय (काल) में अतीत-अनागतकाल में अवस्थित अनन्तता होने से कृतयुग्मता है। प्रदेशार्थरूप से सभी द्रव्य कृतयुग्म हैं, क्योंकि इनमें यथायोग्य असंख्यातता और अनन्तता अवस्थित है।' धर्मास्तिकायादि षद्रव्यों में अल्पबहुत्व का प्रज्ञापनासूत्रातिदेशपूर्वक निरूपण 17. एएसि णं भंते ! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्यिकाय जाव श्रद्धासमयाणं दध्वट्ठयाए ? एएसि अप्पाबहुगं जहा बहुवतव्वयाए तहेव निरवसेसं / [17 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यावत् प्रद्धासमय, इन षट् द्रव्यों में द्रव्यार्थरूप से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य तथा विशेषाधिक है ? [17 उ.] गौतम ! इन सबका अल्पबहुत्व प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय बहुवक्तव्यतापद के अनुसार समझना चाहिए। विवेचन-बहुवक्तव्यतापद का प्रतिदेश-प्रज्ञापनासूत्र के बहुवक्तव्यतापद के अनुसार द्रव्यों का अल्पबहुत्व इस प्रकार समझना-धर्मास्तिकायादि तीन एक-एक द्रव्य होने से द्रव्यार्थरूप से तुल्य हैं और दूसरे द्रव्यों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे जीवास्तिकाय अनन्तगुण है। उनसे पुद्गलास्तिकाय और श्रद्धासमय उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं / प्रदेशार्थरूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात हैं, वे परस्पर तुल्य हैं और दूसरे प्रदेशों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे जीवास्तिकाय, पुद्गला स्तिकाय, अद्धासमय और आकाशास्तिकाय के उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं।" धर्मास्तिकायादि में यथायोग्य अवगाढ-अनवगाढ प्ररूपणा 15. धम्मस्थिकाय गं भंते ! कि प्रोगावे, अणोगा? गोयमा ! प्रोगाढे, नो अणोगाढे। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 873, 874 2. प्रज्ञापता, तृतीय पद, सू. 270-73 [पण्णवणासुत्तं भा. 1, 1. 100 (मूलपाठ-टिप्पण)] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org