SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 302] [व्याख्यानज्ञप्तिसूत्र [3-1 उ.] हे गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। (अर्थात्-असुरकुमार देव रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे निवास नहीं करते / ) [2] एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव अस्थि गं भते ! ईसिफभाराए पुढवीए अहे असुरकमारा देवा परिवसंति ? णो इण? समढ़े। [3-2 प्र.] इसी प्रकार यावत् सप्तम (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी के नीचे भी वे (असुरकुमार देव) नहीं रहते; और न सौधर्मकल्प-देवलोक के नीचे, यावत् अन्य सभी कल्पों (देवलोकों) के नीचे वे रहते हैं। (तब फिर प्रश्न होता है-) भगवन् ! क्या वे असुरकुमार देव ईषत्प्राग्भारा (सिद्धशिला) पृथ्वी के नीचे रहते हैं ? __[3-2 उ.] (हे गौतम ! ) यह अर्थ (बात) भी समर्थ (शक्य) नहीं / (अर्थात्-ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे भी असुरकुमार देव नहीं रहते।) 4. से कहिं खाई णं भाते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति ? ___ गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असोउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए, एवं' असुरकुमारदेववत्तव्वया जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणा विहरति / [4 प्र.] भगवन् ! तब ऐसा वह कौन-सा स्थान है, जहाँ असुरकुमार देव निवास करते हैं ? 64 उ.] गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बीच में (असुरकुमार देव रहते हैं।) यहाँ असुरकुमारसम्बन्धी समस्त वक्तव्यता कहनी चाहिए; यावत् वे (वहाँ) दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरण (अानन्द से जीवनयापन) करते हैं / विवेचन-- असुरकुमार देवों का प्रावासस्थान-प्रस्तुत सूत्रद्वय में असुरकुमार देवों के आवासस्थान के विषय में पूछा गया है और अन्त में भगवान् रत्नप्रभा पृथ्वी के अन्तराल में उनके ग्रावासस्थान होने का प्रतिपादन करते हैं। असुरकुमारदेवों का यथार्थ प्रावासस्थान-प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार रत्नप्रभा का पृथ्वी-पिण्ड एक लाख अस्सी हजार योजन है / उसमें से ऊपर एक हजार योजन छोड़कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर, बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन के भाग में असुरकुमार देवों के 34 लाख भवनावास हैं। असुरकुमार देवों के अधो-तिर्यक-ऊर्ध्वगमन से सम्बन्धित प्ररूपरणा 5. अत्यि णं भाते ! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गतिविसए प० ? हंता, प्रथि। 1. असुरकुमार देव सम्बन्धी वक्तव्यता इस प्रकार समझनी चाहिए---"उरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता, हेट्ठा च एगं जोयणसहस्सं बज्जेत्ता मज्झे अट्टहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोसदि भवणा बाससयसहस्सा भवतीति अक्खायं" इसका भावार्थ विवेचन में किया जा चका है। -सं. 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र (प्रा. स.) पृ. 89-91 (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (टीकानुवाद) (पं. वेचरदासजी) खण्ड 2, पृ. 49 असुरकुमारण दवणं चोसादमवणाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy