________________ बिइओ उद्देसओ : 'चमरो' द्वितीय उद्देशक : चमर द्वितीय उद्देशक का उपोद्घात 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे होत्या जाव परिसा पज्जुवासइ / [1] उस काल, उस समय में राजगृह नाम का नगर था / यावत् भगवान् वहाँ पधारे और परिषद् पर्युपासना करने लगी। 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे प्रसुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सौहासणंसि चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहि जाव नट्टविहिं उवद सेत्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। [2] उस काल, उस समय में चौसठ हजार सामानिक देवों से परिवृत और चमरचंचा नामक राजधानी में, सुधर्मासभा में चमरनामक सिंहासन पर बैठे असुरेन्द्र असुरराज चमर ने (राजगृह में विराजमान भगवान् को अवधिज्ञान से देखा); यावत् नाट्यविधि दिखला कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस लौट गया / विवेचन--द्वितीय उद्देशक का उपोद घात-द्वितीय उद्देशक की उद्देशना कहाँ से और कैसे प्रारम्भ हुई ? इसका यह उपोद्घात है। इसमें बताया गया है कि राजगृह में भगवान् महावीर विराजमान थे / अपनी सुधर्मा सभा में चमरसिंहासन-स्थित चमरेन्द्र ने वहीं से भगवान् को देखा और अपने समस्त देव परिवार को बुलाकर ईशानेन्द्र की तरह विविध नाटयविधि भगवान महावीर और गौतमादि श्रमणवर्ग को दिखलाई और वापस लौट गया / चमरेन्द्र के इस अागमन से अ दिव्य ऋद्धि आदि पर से कैसे प्रश्नों और उत्तरों का सिलसिला प्रारम्भ होता है ? इसे अगले सूत्रों में बताएँगे। असुरकुमार देवों का स्थान 3. [1] भते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदति नमसति, 2 एवं वदासीअस्थि णं भते ! इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! नो इण8 सम? / [3-1 प्र. 'हे भगवन् !' यों कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया / वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा--'भगवन् ! क्या असुर कुमार देव इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे रहते हैं ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org