________________ 300 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परित्तसंसारए-जिसका संसारपरिभ्रमण परिमित–सीमित हो गया हो, पाराहए-ज्ञानादि का आराधक / चरिमेजिसका अब अन्तिम एक ही भव शेष रहा हो, अथवा जिसका यह चरमअन्तिम देव भव हो, पत्थकामए = पथ्यकामी, पथ्य का अर्थ है-दुःख से बचना, उसका इच्छुक / हियकामए हितकामी / हित का अर्थ है-सुख की कारणरूप वस्तु / ' तृतीय शतक के प्रथम उद्देशक की संग्रहरणोगाथाएँ-- 65. गाहाप्रो-छ?ष्टम मासो अद्धमासो बासाइं अट्ठ छम्मासा। तीसग-कुरुदत्ताणं तव भत्तपरिण परियायो॥१॥ उच्चत्त विमाणाणं पादुभव पेच्छणा य संलावे / किच्च विवादुप्पत्ती सर्णकुमारे य भवियत्तं // 2 // मोया समत्ता // तइय सए : पढमो उद्देसो समत्तो // गाथानों का अर्थ-(भावार्थ-इस प्रकार है-) तिष्यक श्रमण का तप छट्ठ-छट्ठ (निरन्तर बेला-बेला) था और उसका अनशन एक मास का था / कुरुदत्तपुत्र श्रमण का तप अट्ठमअट्ठम (निरन्तर तेले-तेले) का था और उसका अनशन था— अर्द्ध मासिक (15 दिन का)। तिष्यक श्रमण की दीक्षापर्याय आठ वर्ष की थी, और कुरुदत्तपुत्रश्रमण की थी-छह मास की। (इन दोनों से सम्बन्धित विषय इस उद्दशक में पाया है।) इसके अतिरिक्त (दूसरे विषय पाए हैं, जैसे कि) दो इन्द्रों के विमानों की ऊँचाई, एक इन्द्र का दूसरे के पास आगमन (प्रादुर्भाव) परस्पर प्रेक्षण (अवलोकन), उनका पालाप-संलाप, उनका कार्य, उनमें विवादोत्पत्ति तथा उनका निपटारा, तथा सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता ग्रादि विषयों का निरूपण इस उद्दशक में किया गया है। / मोका समाप्त / / विवेचन--तृतीय शतक के प्रथम उद्देशक की दो संग्रहणी गाथाएँ–यहाँ प्रथम उद्देशक में प्रतिपादित विषयों का संक्षेप में संकेत दो गाथाओं द्वारा दिया गया है। // तृतीय शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवतीसूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका, हिन्दी गुर्जरभाषानुवादयुक्त भा. 3, पृ. 299 (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 169 इस उपाक में वर्णित विषयों का निरूपण भगवान ने 'मोका नगरी' में किया था, इसलिए इस उट्टी शक का एक नाम 'मोका' भी रखा गया है। वर्तमान में पटना के निकट 'मोकामा घाट' नामक स्थान है, सम्भव है, बही प्राचीन मोका नगरी हो।सं. 3. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 169 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org