________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [ 299 समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं साविगाणं हियकामए सुहकामए पत्थकामए प्राणुकंपिए निस्सेयसिए हिय-सुह-निस्सेसकामए, से तेण?णं गोयमा ! सणंकुमारे णं भवसिद्धिए जाव नो प्रचरिमे। [62-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है) ? [62-2 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं का हितकामी (हितैषी), सुखकामी (सुखेच्छु), पथ्यकामी (पथ्याभिलाषी), अनुकम्पिक (अनुकम्पा करने वाला), निश्रेयसिक (निःश्रेयस = कल्याण या मोक्ष का इच्छुक) है। वह उनका हित, सुख और निःश्रेयस् का कामी (चाहने वाला) है। इसी कारण, गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र भवसिद्धिक है, यावत् (चरम है, किन्तु) अचरम नहीं। 63. सणकुमारस्स णं भते ! दोविंदस्स देवरणो केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! सत्त' सागरोवमाणि ठिती पण्णत्ता। [63 प्र. ] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की स्थिति (आयु) कितने काल की कही गई है ? [63 उ.] गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र की स्थिति (उत्कृष्ट) सात सागरोपम की कही गई है। 64. से णं मते ! तारो देखलोगातो पाउखएणं जाव कहि उबवजिहिति ? गोयमा ! महाविद हे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति / सेवं भते ! सेवं भते! // [64 प्र. ] भगवन् ! वह (सनत्कुमारेन्द्र) उस देवलोक से आयु क्षय (पूर्ण) होने के बाद, यावत् कहाँ उत्पन्न होगा ? [64 उ. ] हे गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र उस देवलोक से च्यवकर (आयुष्य पूर्ण कर) महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) में, (जन्म लेकर वहीं से) सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है !' (यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे।) विवेचन-सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता प्रादि, तथा स्थिति एवं सिद्धि के सम्बन्ध में प्रश्नोतर-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 62 से 64 तक) में सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता-अभवसिद्धिकता, सम्यग्दृष्टित्व-मिथ्यादृष्टित्व, परित्तसंसारित्व अनन्तसंसारित्व, सुलभबोधिता-दुर्लभ-बोधिता, विराध कता-पाराधकता, एवं चरमता-अचरमता आदि प्रश्न उठा कर, इनमें से उसके प्रशस्तपदभागी होने के कारण की तथा उसकी स्थिति एवं भविष्य में सिद्धि प्राप्ति से सम्बन्धित सैद्धान्तिक दृष्टि से प्ररूपणा की गई है। कठिन शब्दों के विशेषार्थ--'भवसिद्धिए' = जो भविष्य में सिद्धि = मुक्ति प्राप्त कर लेगा वह भवसिद्धिक होता है / 'सम्मट्टिी' = सम्यग्दृष्टि-जीवादि नौ तत्त्वों पर निर्दोष श्रद्धावान् / 1. तुलना-सप्त सनत्कुमारे' तत्त्वार्थसूत्र, अ. 4, सू. 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org