________________ 298] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन--दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार तथा विवाद में सनत्कुमारेन्द्र को मध्यस्थता--प्रस्तुत छह सूत्रों (56 से 61 सू० तक) में शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र के परस्पर मिलने-जुलने, एक दूसरे को आदर देने, एक दूसरे को भलीभांति देखने (प्रेमपूर्वक साक्षात्कार करने), परस्पर वार्तालाप करने तथा पारस्परिक विवाद उत्पन्न होने पर सनत्कुमारेन्द्र को मध्यस्थ बनाकर उसकी बात मान्य करने आदि द्वारा दोनों इन्द्रों के पारस्परिक शिष्टाचार एवं व्यवहार का निरूपण किया गया है / कठिन शब्दों के विशेषार्थ-पाउभवित्तए प्रादुर्भूत-प्रकट होने-माने के लिए / मालावं - पालाप-एक बार संभाषण, संलावं बार-बार संभाषण, किच्चाई = कृत्य अर्थात्-प्रयोजन, करणिज्जाई = करणीय = करने योग्य कार्य / कहमिदाणि पकरेंति = जब कार्य करने का प्रसंग हो, तब वे किस प्रकार से करते हैं ? पच्चणुभवमाणा=प्रत्यनुभव करते हुए अपने-अपने करणीय कार्य का अनुभव करते हुए / इति भो ! ऐसी बात है, जी ! या यह कार्य है, अजी ! 1 'आढायमाणे-अणाढायमाणे' इन दोनों शब्दों का तात्पर्य-यह भी है कि शकेन्द्र की अपेक्षा ईशानेन्द्र का दर्जा ऊँचा है, इसलिए शकेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास तभी जा सकता है जबकि ईशानेन्द्र शक्रेन्द्र को आदरपूर्वक बुलाए / अगर आदरपूर्वक न बुलाए तो वह ईशानेन्द्र के पास नहीं जाता, किन्तु ईशानेन्द्र शकेन्द्र के पास बिना बुलाए भी जा सकता है क्योंकि उसका दर्जा ऊंचा है।' सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता आदि तथा स्थिति एवं सिद्धि के विषय में प्रश्नोत्तर 62. [1] सणंकुमारे णं भाते ! देविंद देवराया किं भवसिद्धिए, प्रभवसिद्धिए ? सम्मट्ठिी, मिच्छट्ठिी ? परित्तसंसारए, अणंतसंसारए ? सुलभवोहिए, दुल्ल भबोहिए? पाराहए, विराहए ? चरिमे प्रचरिमे ? / गोयमा ! सणंकुमारे णं दरिद देवराया भवसिद्धिए नो अभयसिद्धिए, एवं सम्मट्टिी परित्तसंसारए सुलभबोहिए प्राराहए चरिमे, पसत्थं नेयव्वं / [62-1 प्र.] हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार क्या भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक है ? ; सम्यग्दृष्टि है, या मिथ्यादृष्टि है ? परित्त (परिमित) संसारी है या अनन्त (अपरिमित) संसारी ?; सुलभबोधि है, या दुर्लभबोधि ?; आराधक है, अथवा विराधक ? चरम है अथवा अचरम? [62-1 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं; इसी तरह वह सम्यग्दृष्टि है, (मिथ्यादृष्टि नहीं ;) परित्तसंसारी है, (अनन्तसंसारी नहीं;) सुलभबोधि है, (दुर्लभबोधि नहीं;) आराधक है, (विराधक नहीं;) चरम है, (अचरम नहीं।) (अर्थात्- इस सम्बन्ध में सभी) प्रशस्त पद ग्रहण करने चाहिए। [2] से केपट्टणं भाते ! ? गोयमा ! सणकुमारे देविंद देवराया बहूणं समणाणं बहूर्ण 1. (क) भगवती सूत्र अ-वृत्ति, पत्रांक 169 (ब) भगबती-विवेचन (पं. घेवरचंदजी), भा. 2, पृ. 598 से 600 तक 2. भगवती सूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका (हिन्दी-गुर्जर भावानुवादयुक्त) भाग 3, पृ. 28 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org