________________ बीसवां शतक : उद्देशक 8] [61 चौवीस तीर्थकरों के अन्तर तथा तेईस जिनान्तरों में कालिकश्रुत के व्यवच्छेद-अव्यवच्छेद का निरूपण 8. एएसिणं भंते ! चउबीसाए तित्थयराणं कति जिणंतरा पन्नत्ता? गोयमा ! तेवीसं जिणंतरा पन्नत्ता। 8 प्र.] भगवन् ! इन चौवीस तीर्थंकरों के कितने जिनान्तर (तीर्थंकरों के व्यवधान) कहे गए हैं ? [8 उ.] गौतम ! इनके तेईस अन्तर कहे गए हैं / 6. एएसु णं भंते ! तेवीसाए जिणंतरेसु कस्स कहि कालियसुयस्स बोच्छेदे पन्नते? गोयमा ! एएसु णं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिम-पच्छिमएसु अट्ठसु असु जिणंतरेसु, एत्थ णं कालियसुयस्स अवोच्छेदे पश्नत्त, मज्झिमएसु सत्तसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स बोच्छेदे पन्नत्ते, सम्वत्थ वि णं वोच्छिन्ने दिट्ठिवाए। [प्र.] भगवन् ! इन तेईस जिनान्तरों में किस जिन के अन्तर में कब कालिकश्रुत (सूत्र) का विच्छेद (लोप) कहा गया है ? [6 उ.] गौतम ! इन तेईस जिनान्तरों में से पहले और पीछे के पाठ-आठ जिनान्तरों (के समय) में कालिकश्रुत (सूत्र) का अव्यवच्छेद (लोप नहीं) कहा गया है और मध्य के पाठ जिनान्तरों में कालिकश्रुत का व्यवच्छेद कहा गया है; किन्तु दृष्टिवाद का व्यवच्छेद सो सभी जिनान्तरों (के समय) में हुआ है। विवेचन–कालिकश्रुत और अकालिकश्रुत का स्वरूप-जिन सूत्रों (शास्त्रों) का स्वाध्याय दिन और रात्रि के पहले और अन्तिम पहर में ही किया जाता हो, उन्हें कालिकश्रुत कहते हैं। जैसे-आचारांग आदि 23 सूत्र, (11 अंगशास्त्र, निरयावलिका आदि 5 सूत्र, चार छेदसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और उत्तराध्ययनसूत्र) / जिन सूत्रों का स्वाध्याय (अस्वाध्याय के समय या परिस्थिति को छोड़कर) सभी समय किया जा सकता हो, उन्हें उत्कालिकश्रुत कहते हैं। जैसे दशवैकालिक आदि 9 सूत्र (दशवकालिक, नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार, औपपातिकसूत्र, राजप्रश्नीय, सूर्यप्रज्ञप्ति, जीवाभिगम, प्रज्ञापना और आवश्यकसूत्र। कालिकश्रु त का विच्छेद कब और कितने काल तक? नौवें तीर्थंकर श्रीसुविधिनाथ से ले कर सोलहवें तीर्थकर श्रीशान्तिनाथ भगवान तक सात अन्तरों (मध्यकाल) में कालिकश्रुत का विच्छेद (लोप) हो गया था और दृष्टिवाद का विच्छेद तो सभी जिनान्तरों में हुआ और होता है। सात जिनान्तरों में कालिकश्रुत का विच्छेदकाल इस प्रकार है-सुविधिनाथ और शीतलनाथ के बीच में पल्योपम के चतुर्थ भाग तक, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के बीच में पल्योपम के चतुर्थभाग तक, श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य स्वामी के बीच में पल्योपम के तीन चौथाई भाग (पौन पल्योपम) तक, वासुपूज्य और विमलनाथ के मध्य में एक पल्योपम तक, विमलनाथ और अनन्तनाथ के मध्य में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org