________________ 4223 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र छद्मस्थ के ज्ञान से अगोचर होते हैं / किन्तु वह कर्म और लेश्या से युक्त तथा शरीरसहित जीव (अपनी प्रात्मा) को तो जानता--देखता ही है, क्योंकि शरीर चक्षु द्वारा ग्राह्य है तथा प्रात्मा शरीर से सम्बद्ध होने से कथंचित् अभेद एवं स्वसंविदित होने से भावितात्मा अनगार कर्म एवं लेश्या से युक्त तथा शरीरसहित स्वात्मा को जानता है / ' वर्णादिवाले (सरूपी) एवं कर्मलेश्या वाले पुदगल-स्कन्ध –चन्द्रमा और सूर्य के विमानों से निकली हुई जो तेजस्वी प्रभाएँ (लेश्याएँ) प्रकाशित होती हैं, उन लेश्याओं के प्रकाश से ही पूर्वोक्त सरूपी (वर्णादिवाले) और कर्मलेश्या वाले पुद्गल-स्कन्ध भी प्रकाशित होते हैं / यद्यपि चन्द्र-सूर्य के विमान के पुदगल पृथ्वीकायिक होने से सचेतन हैं, इस कारण उचित है, किन्तु उनसे निकले हुए प्रकाश के. पुद्गल कर्मलेश्या वाले नहीं होते, तथापि वे उनसे निकले हैं, इस कारण वे प्रकाश के पुद्गल कार्य में कारण के उपचार को लेकर कर्मलेश्या वाले कहे गए हैं। _कठिनशब्दार्थ -सरूवो-सरूपी-रूप (मूर्तता) सहित, वर्णादि वाले या रूप और रूपवान् का अभेदसम्बन्ध होने से शरीर सहित / सकम्मलेस्सा--कमलेश्यासहित, अर्यात्-कर्मद्रव्यश्लिष्ट कृष्णादि लेश्यायुक्त / लेस्साओ-तेज को प्रभारं, तेभोलेश्याएं। बहियाअभिनिस्सडाओ- बाहर अभिनिःसृत-निकलो हुई / ओभासंति -प्रकाशित-प्रद्योतित होती हैं / चौवीस दण्डकों में प्रात्त-अनात्त, इष्टानिष्ट आदि पुदगलों को प्ररूपणा 4. नेरतियाणं भंते ! कि अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला? गोयमा ! नो अत्ता पोग्गला, अणता पोग्गला। [4 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों के प्रात्त पुद्गल होते हैं अथवा अनात्त पुद्गल होते हैं ? [4 उ.] गौतम ! उनके प्रात्त पुद्गल नहीं होते, अनात्त पुद्गल होते हैं / 5. प्रसुरकुमाराणं भंते ! कि अत्ता पोम्गला, अणत्ता पोग्गला? गोयमा! अत्ता पोग्गला, णो अणत्ता पोग्गला। [5 प्र. भगवन् ! असुरकुमारों के आत्त पुदगल होते हैं, अथवा अनात्त पुद्गल होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! उनके प्रात्त पुद्गल होते हैं, अनात्त पुद्गल नहीं होते / 6. एवं जाव थणियकुमाराणं / [6] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए / 7. पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! अत्ता वि पोग्गला, अणत्ता विपोग्गला। 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 655 (ख) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. 11, पृ. 397 2. वही, प्रमेय चन्द्रिका टीका भा. 11, पृ. 397 3. भगवती अ. वत्ति, पत्र 655 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org