________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 9) [423 [7 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के प्रात्त पुद्गल होते हैं अथवा अनात्त पुद्गल ? [7 उ. गौतम ! उनके प्रात्त पुद्गल भी होते हैं और अनात्त पुद्गल भी / 8. एवं जाव मणुस्साणं / [8] इसी प्रकार (अप्कायिक जीवों से लेकर) यावत् मनुष्यों तक (के विषय में) कहना चाहिए / 9. बाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं। 18] वाण-व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। 10. नेरतियाणं भंते ! कि इट्टा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला ? गोयमा ! नो इट्ठा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला। [10 प्र. भगवन् ! नैर यिकों के पुद्गल इष्ट होते हैं या अनिष्ट होते हैं ? {10 उ.] गौतम ! उनके पुद्गल इष्ट नहीं होते, अनिष्ट पुद्गल होते हैं। 11. जहा अत्ता भणिया एवं इट्टा वि, कंता वि, पिया वि, मणुन्ना वि भाणियव्वा / एए पंच दंडगा। [11] जिस प्रकार प्रात्त पुद्गलों के विषय में (आलापक) कहे थे, उसी प्रकार इष्ट, कान्त, प्रिय तथा मनोज्ञ पुद्गलों के विषय में (पालापक) कहने चाहिए / इस प्रकार ये पांच दण्डक कहने चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 4 से 11 तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के पांच प्रकार के शुभ-अशुभ पुद्गलों के विषय में प्रश्नोत्तर किया गया है / आत्त प्रादि का अर्थ ---प्रता : दो रूपः तीन अर्थ-पात्र-जो सब ओर से दुःखों से त्राणरक्षण करता है, सुख उत्पन्न करता है, वह दुःखत्राता सुखोत्पादक पात्र है। (2) प्राप्त एकान्त हितकारक / (3) अतएव रमणीय / अनात्त-दुःखकारक-अहितकारी / इट्टा-इष्ट-अभीष्ट / कता-कान्त-कमनीय / पिया-प्रिय-प्रीतिजनक / मणुण्णा--मनोज्ञ-मन के अनुकल / ' निष्कर्ष-नैरयिकों के पुद्गल अनात्त, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय और अमनोज्ञ होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय से लेकर मनुष्यों तक के पुद्गल प्रात्त-अनात्त, इष्टानिष्ट, कान्ताकान्त, प्रियाप्रिय और मनोज्ञ-अमनोज्ञ, दोनों प्रकार के होते हैं। चारों ही जाति के देवों के पुद्गल एकान्त प्रात्त, इष्ट, प्रिय और मनोज्ञ होते हैं / 1. (क) अत्त त्ति-आ---अभिविधिना त्रायन्ते-दु:खात संरक्षन्ति, सुखं चोत्पादयन्तीति पात्रा:, प्राप्ता वा--- एकान्तहिताः / अतएव रमणीया इति वृद्ध व्याख्यातम् / -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 656 (ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2358 2. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2358 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 656 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org