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________________ 76] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रविष्ट हुआ, फिर उसने अपने स्वाभाविक बुद्धिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया / उसके बाद इष्ट, कान्त यावत् मंगलमय, परिमित, मधुर एवं शोभायुक्त सुन्दर वचन बोलता हुना राजा रानी प्रभावती से इस प्रकार वोला--"हे देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है / देवी ! तुमने कल्याणकारक यावत् शोभायुक्त स्वप्न देखा है। हे देवी! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याणरूप एवं मंगलकारक स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिये ! (तुम्हें इस स्वप्न के फलस्वरूप) अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ और राज्यलाभ होगा। हे देवानुप्रिये ? नौ मास और साढ़े सात दिन (अहोरात्र) व्यतीत होने पर तुम हमारे कुल में केतु-(ध्वज) समान, कुल के दीपक, कुल में पर्वततुल्य, कुल का शेखर, कुल का तिलक, कुल की कोति फैलाने वाले, कुल को प्रानन्द देने वाले, कुल का यश बढ़ाने वाले, कुल के प्राधार, कुल में वृक्ष समान, कुल की वृद्धि करने वाले, सुकुमाल हाथ-पैर वाले, अंगहीनतारहित, परिपूर्ण पंचेन्द्रिययुक्त शरीर वाले, यावत् चन्द्रमा के समान सौम्य प्राकृति वाले, कान्त, प्रियदशन, सुरूप एवं देवकुमार के समान कान्ति वाले पुत्र को जन्म दोगी।" वह बालक भी बालभाव से मुक्त होकर विज्ञ और कलादि में परिपक्व (परिणत) होगा। यौवन प्राप्त होते ही वह शूरवीर, पराक्रमी तथा विस्तीर्ण एवं विपुल बल (सैन्य) और वाहन वाला राज्याधिपति राजा होगा / अतः हे देवी ! तुमने उदार (प्रधान) स्वप्न देखा है, यावत् देवी ! तुमने प्रारोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है, इस प्रकार बल राजा ने प्रभावती देवी को इष्ट यावत् मधुर वचनों से वही बात दो बार और तीन बार कही। विवेचन प्रभावती को राजा द्वारा स्वप्नफलकथन—प्रस्तुत 25 वें सूत्र में प्रभावती रानी से स्वप्नवर्णन सूनकर राजा ने उसे विस्तार से स्वप्नफल बताया है, विशेषतः तेजस्वी पुत्रलाभसूचक फल का प्रतिपादन किया है।' कठिन शब्दों का भावार्थ --चंचुमालइयतण-उसका शरीर पुलकित हो उठा / बुद्धिविन्नाजेण-पौत्पत्तिको आदि बुद्धिरूप विज्ञान से ! साभाविएण स्वाभाविक / अत्थोग्गहणं-अर्थावग्रहण-फलनिश्चय / कल्लाण-अर्थ (प्रयोजन) की प्राप्तिरूप, मंगल्ल—अनर्थप्रतिघात रूप / कुलके उं--कुलध्वजरूप। कुलदीवं–कुल में दीपक के समान प्रकाशक / कुलपम्वयं-कुल में पर्वत के समान स्थिर आश्रय वाला / कुलवडेंसयं-कुल का अवतंसक--शेखर, कुल के वृक्ष के तुल्य आश्रयदाता / विनाय-परिणयमित्ते-विज्ञ और कलादि में परिणत (परिपक्व) मात्र / रज्जवई-राज्यपति अर्थात् - स्वतंत्र राजा / प्रभावती द्वारा स्वप्नफल स्वीकार और जागरिका 26. तए णं सा पभावती देवी बलस्स रणो अंतियं एयमझें सोच्चा निसम्म हटतुट्ठ० करयल जाव एवं वयासो-'एवमेतं देवाणुप्पिया !, तहमेयं देवाणुप्पिया! , अवितहमेयं देवाणुप्पिया!, असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया!, पडिच्छियमेतं देवाणुप्पिया!, इच्छियपडि१. बियाहपण्ण त्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 531 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 541 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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