________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] च्छियमेयं देवाणुप्पिया ! से जहेयं तुम्भे वदह' ति कटु तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, तं० पडि० 2 बलेण रण्णा अब्भगुण्णाया सभाणी णाणामणि-रयणभत्तिचित्तातो भद्दासणाओ अन्भुट्ठइ, अ० 2 अतुरियमचवल जाव गतीए जेणेव सए सणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० 2 सयणिज्जसि निसीयति, नि० 2 एवं वदासी--'मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुविणे अन्नेहि पावसुविर्गाह पडिहम्मिस्सई' त्ति कटु देव-गुरुजण-संबद्धाहि पसस्थाहिं मंगल्लाहि धम्मियाहि कहाहि सुविणजागरियं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरति / [26] नदनन्तर वह प्रभावतो रानी, बल राजा से इस बात (स्वप्नफल) को सुन कर, हृदय में धारण करके हर्षित और सन्तुष्ट हुई; और हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार बोली-“हे देवानुप्रिय ! आपने जो कहा, वह यथार्थ है, देवानुप्रिय ! वह सत्य है, असंदिग्ध है / वह मुझे इच्छित है, स्वीकृत है, पुन: पुनः इच्छित और स्वीकृत है।" इस प्रकार स्वप्न के फल को सम्यक् रूप से स्वीकार किया और फिर बल राजा की अनुमति लेकर अनेक मणियों और रत्नों से चित्रित भद्रासन से उठी। फिर शीघ्रता और चपलता से रहित यावत् गति से जहाँ (शयनगृह में) अपनी शय्या थी, वहाँ आई और शय्या पर बैठ कर (मन ही मन) इस प्रकार कहने लगी--'मेरा यह उत्तम प्रधान एवं मंग स्वप्न दूसरे पापस्वप्नों से विनष्ट न हो जाए।' इस प्रकार विचार करके देवगुरुजन-सम्बन्धी प्रशस्त और मंगलरूप धार्मिक कथानों (विचारणाओं) से स्वप्नजागरिका के रूप में वह जागरण करती हुई बैठी रही। विवेचन-प्रभावती द्वारा स्वप्नफल स्वीकार और स्वप्नजागरिका प्रस्तुत 26 वें सूत्र में राजा द्वारा कथित स्वप्नफल को प्रभावती रानी द्वारा स्वीकार करने का और रानी द्वारा स्वप्नजागरिका का वर्णन है / ' कठिन शब्दों का अर्थ-तहमेयं-यह तथ्य है / अवितहमेयं-असत्य नहीं है। परिच्छियंस्वीकृत है। सम्मं पडिच्छइ ---भलीभांति स्वीकार करती है। पावसुमिहि--अशुभ स्वप्नों से। पडिहम्मिस्सइ-प्रतिहत नष्ट हो जाए / सुविणजागरियं-स्वप्न की सुरक्षा के लिए किया जाने वाला जागरण / कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा उपस्थानशाला की सफाई और सिंहासन-स्थापन 27. तए णं से बले राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, को० स० 2 एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्तसुइयसम्मज्जियोवलितं सुगंधवरपंचवण्णपुप्फोक्यारकलियं कालागरुपवरकुदुरुक्क० जाव गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करे०२ सीहासणं रएह, सोहा० र० 2 ममेत जाव पच्चप्पिणह / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 540 2. (क) भगवती. विवेचन (6. घेवरचन्दजी) भा, 4, पृ. 1931 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 542 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org