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________________ 78] / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [27] तदनन्तर बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाया और उनको इस प्रकार का आदेश दिया-हे देवानुप्रियो ! बाहर की उपस्थानशाला को प्राज शीघ्र ही विशेष रूप से गन्धोदक छिड़क कर शुद्ध करो, स्वच्छ करो, लीप कर सम करो। सुगन्धित और उत्तम पांच वर्ण के फूलों से सुसज्जित करो, उत्तम कालागुरु और कुन्दरुष्क के धूप से यावत् सुगन्धित गुटिका के समान करो-कराओ, फिर वहाँ सिंहासन रखो। ये सब कार्य करके यावत् मुझे वापस निवेदन करो।" 28. तए णं ते कोडुबिय० जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं जाव पच्चप्पिणंति / [28] तब यह सुन कर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने बलराजा का आदेश शिरोधार्य किया और यावत् शीघ्र ही विशेषरूप से बाहर की उपस्थानशाला को यावत् स्वच्छ, शुद्ध, सुगन्धित किया यावत् आदेशानुसार सब कार्य करके राजा से निवेदन किया। विवेचन उपस्थानशाला को सुसज्जित करके सिंहासनस्थापन का आदेश-प्रस्तुत 27-28 सूत्रों में राजा द्वारा कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर उपस्थानशाला की सफाई तथा सजावट आदि करके सिंहासन रखने को दिये गये प्रादेश आदि का निरूपण है।' बलराजा द्वारा स्वप्नपाठक आमंत्रित 29, तए णं से बले राया पच्चूसकालसमयंसि सणिज्जाओ समुद्रुति, स० स० 2 यापीठातो पच्चोरुभति, 502 जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 अट्टणसालं अणुपविसइ जहा उववातिए तहेव अट्टणसाला तहेव मज्जणघरे जाव ससि व्व पियदसणे नरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमति, म० 502 जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, ते० उ०२ सोहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयति, नि० 2 अपणो उत्तरपुरस्थिमे दिसौभाए अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्यपच्चत्थुयाई सिद्धत्थगकयमंगलोवयाराई रयावेइ, रया०२ अप्पणो अदूरसामंते णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिज्जं महाघवरपट्टणग्गयं सहपट्टभत्तिसयचित्तताणं ईहामिय उसभ जाव भत्तिचित्तं अभितरियं जवणियं अंछावेति, अ० 2 नाणामणि-रयणभत्तिचित्तं अत्थरयमउयमसूरगोत्थगं सेयवत्थपच्चत्युतं अंगसुहफासयं सुमउयं पभावतीए देवीए भद्दासणं रयावेइ, 20 2 कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, को० स० 2 एवं वदासि-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अलैंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सद्दावेह / [26] इसके पश्चात् बलराजा प्रातःकाल के समय अपनी शय्या से उठे और पादपीठ से नीचे उतरे / फिर वे जहाँ व्यायामशाला (अट्टान शाला) थी, वहाँ गए / व्यायामशाला में प्रवेश किया। व्यायामशाला तथा स्नानगृह के कार्य का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए, यावत् चन्द्रमा के समान प्रिय-दर्शन बन कर वह नप, स्नानगृह से निकले और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी वहाँ पाए / (वह रखे हुए सिंहासन पर पूर्वदिशा की ओर मुख करके बैठे। फिर अपने से उत्तरपूर्व दिशा (ईशानकोण) में (अपनी बायीं ओर) श्वेतवस्त्र से आच्छादित तथा सरसों आदि मांगलिक 1. विद्यापत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 540-541 . .-- - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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