________________ हम्पटाराजी स्थापना छठा शतक : उद्देशक-५] [59 __ गोयमा ! उप्पि सणकुमार-माहिदाणं कप्पाणं, होटव' बंभलोगे कप्पे रिटू विमाणपत्थडे, एत्थ णं अक्खाडग-समचउरंससंठाणसंठियाप्रो अट्ठ कण्हराईनो पण्णतामो, तं जहा–पुरथिमेणं दो, पच्चस्थिमेणं दो, दाहिणणं दो, उत्तरेणं दो। पुरथिमम्भतरा कहराई दाहिणबाहिरं फहराई पुट्ठा, दाहिणभंतरा कण्हराई पच्चत्यिमबाहिरं कण्हराई पुट्टा, पच्चस्थिमन्भतरा कण्हराई उत्तरबाहिरं कण्हराई पुट्ठा, उत्तरऽभतरा कण्हराई पुरस्थिमबाहिरं कम्हराई पुट्ठा। दो पुरथिमपच्चस्थिमाओ बाहिरामो कण्हराईनो छलंसाप्रो, दो उत्तरदाहिणबाहिरामो कण्हराईयो तंसानो, दो पुरस्थिमपच्चत्थिमानो अभितरामो कण्हराईयो चउरंसाप्रो, दो उत्तरदाहिणालो अन्भितरामो कण्हराईओ चउरंसायो। पुवावरा छलंसा, तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा। अभंतर चउरसा सव्वा वि य कण्हराईश्रो // 1 // [18 प्र.] भगवन् ! ये आठ कृष्णराजियां कहाँ हैं ? कोला राखी - सुप्रतिएटाभ [18 उ.] गौतम ! ऊपर सनत्कुमार चनको माग (तृतीय) और माहेन्द्र (चतुर्थ) कल्पों (देवलोकों) पर और नीचे ब्रह्मलोक (पंचम) देवलोक के परिष्ट नामक विमान के (तृतीय) प्रस्तट (पाथड़े) से नीचे, (अर्थात्) इस स्थान में, अखाड़ा (प्रेक्षास्थल) के आकार की समचतुरस्र (सम चौरस) संस्थान-बाली पाठ कृष्णराजियां हैं। / यथा--पूर्व में दो, पश्चिम में दो, दक्षिण में दो PARTICIN r और उत्तर में दो / पूर्वाभ्यन्तर अर्थात्-- पूर्वदिशा W antato की पाभ्यन्तर कृष्णराजि दक्षिण दिशा की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श की (सटी) हुई है। दक्षिण दिशा की प्राभ्यन्तर कृष्णराजि ने पश्चिम दिशा MOTI की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श किया हुआ है / पश्चिम दिशा की प्राभ्यन्तर कृष्णराजि ने उत्तर दिशा की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श किया हना है, और उत्तर दिशा की प्राभ्यन्तर कृष्णराजि पूर्वदिशा की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श की हुई है। पूर्व और पश्चिम दिशा की दो बाह्य कृष्णराजियाँ षडंश (षटकोण) हैं, उत्तर और दक्षिण की दो बाह्य कृष्णराजियाँ व्यत्र (त्रिकोण) हैं; पूर्व और पश्चिम को दो आभ्यन्तर कृष्णराजियाँ चतुरस्त्र (चतुष्कोण-चौकोन) हैं, इसी प्रकार उत्तर और दक्षिण की दो आभ्यन्तर कृष्णराजियाँ भी चतुष्कोण ६.सुराभन Hal चतरकोण माराव षट्कोण कृपयाराण गतिमा "क्टकोटा कृष्णराखणे ३.वरोचन चतुएकोष मराठी 2.अचिमाली गाथार्थ-] "पूर्व और पश्चिम की कृष्णराजि षट्कोण हैं, तथा दक्षिण और उत्तर की बाह्य कृष्णराजि त्रिकोण हैं। शेष सभी प्राभ्यन्तर कृष्णराजियाँ चतुष्कोण हैं।" 1. हन्वि का स्पष्ट अर्थ है-नीचे / कुछ प्रतियों में परिवर्तित पाठ 'हटि' 'हेटिंछ' भी मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org