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________________ 58] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आकाश-प्रदेश की श्रेणीरूप नहीं / फिर तमस्काय का संस्थान मिट्टी के सकोरे के (मूल का) आकारसा या ऊपर मुर्गे के पिंजरे-सा है / वह दो प्रकार का है--संख्येय विस्तृत और असंख्येय विस्तृत / पहला जलान्त से प्रारम्भ होकर संख्येय योजन तक फैला हुआ है, दूसरा असंख्येय योजन तक विस्तृत और असंख्येय द्वीपों को घेरे हुए है / तमस्काय इतना अत्यधिक विस्तृत है कि कोई देव 6 महीने तक अपनी उत्कृष्ट शीघ्र दिव्यगति से चले तो भी वह संख्येय योजन विस्तृत तमस्काय तक पहुँचता है, असंख्येय योजन विस्तृत तमस्काय तक पहुँचना बाकी रह जाता है। तमस्काय में न तो घर है, और न गृहापण है और न ही ग्राम, नगर, सन्निवेशादि हैं, किन्तु वहाँ बड़े-बड़े मेघ उठते हैं, उमड़ते हैं, गर्जते हैं, बरसते हैं / बिजली भी चमकती है। देव, असुर या नागकुमार ये सब कार्य करते हैं / विग्रहगतिसमापन बादर पृथ्वी या अग्नि को छोड़ कर तमस्काय में न बादर पृथ्वीकाय है, न बादर अग्निकाय / तमस्काय में चन्द्र-सूर्यादि नहीं हैं, किन्तु उसके आस-पास में हैं, उनकी प्रभा तमस्काय में पड़ती भी है, किन्तु तमस्काय के परिणाम से परिणत हो जाने के कारण नहीं जैसी है। तमस्काय काला, भयंकर काला और रोमहर्षक तथा त्रासजनक है / देवता भी उसे देखकर घबरा जाते हैं / यदि कोई देव साहस करके उसमें घुस भी जाए तो भी वह भय के मारे कायगति से अत्यन्त तेजी से और मनोगति से अतिशीघ्र बाहर निकल जाता है / तमस्काय के तम आदि तेरह सार्थक नाम हैं। तमस्काय पानी, जीव और पुद्गलों का परिणाम है, जलरूप होने के कारण वहाँ बादर वायु, वनस्पति और त्रसजीव उत्पन्न होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य जीवों का स्वस्थान न होने के उन की उत्पत्ति तमस्काय में सम्भव नहीं है / ' कठिन शब्दों की व्याख्या-बलाहया संसेयंति सम्मुच्छंति, वासं वासंति =महामेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, अर्थात्---तज्जनित पुद्गलों के स्नेह से सम्मूच्छित होते (उठते-उमड़ते) हैं, क्योंकि मेघ के पुद्गलों के मिलने से ही उनकी तदाकाररूप से उत्पत्ति होती है, और फिर वर्षा होती है। 'बादर विद्य त्' यहाँ तेजस्कायिक नहीं है, अपितु देव के प्रभाव से उत्पन्न भास्वर (दीप्तिमान्) पुद्गलों का समूह है ! पलिपस्सतो परिपार्श्व में प्रासपास में। उत्तासणए उग्र त्रास देने वाला / खुभाएज्जा =क्षुब्ध हो जाता है, घबरा जाता है। अभिसमागच्छेज्जा प्रवेश करता है। उववण्णपुवा-पहले उत्पन्न हो चुके / असई अदुवा प्रणंतवखुत्तो-अनेक बार अथवा अनन्त बार / देववूहे = चक्रव्यूह्वत् देवों के लिए भी दुर्भेद्य व्यूहसम / देवयरिघ =देवों के गमन में बाधक परिध-परिखा की तरह / ' विविध पहलुओं से कृष्णराजियों से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 17. कति णं भते! कण्हराईनो पण्णत्तानो ? गोयमा ! अट्ट कण्हराईप्रो पण्णत्तानो। [17 प्र.] भगवन् ! कृष्णराजियाँ कितनी कही गई हैं ? [17 उ.] गौतम ! कृष्णराजियाँ पाठ हैं / 18. कहि णं माते ! एयानो अट्ठ कण्हराईनो पण्णत्तानो ? 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 268 से 270 तक (ख) बियापण्णत्तिसुत्त (मू. पा. टि) भा. 1, पृ. 247 से 250 तक 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 268 से 270 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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