________________ छठा शतक : उद्देशक-५ ] कोई देव भी उस तमस्काय को देखते ही सर्वप्रथम तो क्षुब्ध हो जाता है। कदाचित् कोई देव तमस्काय में अभिसमागम (प्रवेश) करे भी तो प्रवेश करने के पश्चात् वह शीघ्राति-शीघ्र त्वरित गति से झटपट उसे पार (उल्लंघन) कर जाता है। 14. तमुकायस्स णं भंते ! कति नामज्जा पण्णता? गोयमा ! तेरस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-तमे ति वा, तमुकाए ति वा, अंधकारे इवा, महंधकारे इ वा, लोगंधकारे इ वा, लोगतमिस्से इ वा, देवंधकारे तिवा, देवंत मिस्ले ति वा, देवारपणे ति वा, देववू हे ति वा, देवफलिहे ति वा, देवपडिक्खो ति वा, अरुणोदए ति वा समुद्दे / [14 प्र.] भगवन् ! तमस्काय के कितने नाम (नामधेय) कहे गए हैं ? 14 उ.] गौतम ! तमस्काय के तेरह नाम कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(२) तम, (2) तमस्काय, (3) अन्धकार, (4) महान्धकार, (5) लोकान्धकार, (6) लोकतमित्र, (7) देवान्धकार, (8) देवतमिस्र, (6) देवारण्य, (10) देवव्यूह, (11) देवपरिघ, (12) देवप्रतिक्षोभ (13) अरुणोदक समुद्र। 15. तमुकाए गंमते ! किं पुढविपरिणामे प्राउपरिणामे जीवपरिणामे पोग्गलपरिणाम? गोयमा ! नो पुढविपरिणामे, प्राउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि, पोग्गलपरिणामे वि। [15 प्र.] भगवन् ! क्या तमस्काय पृथ्वी का परिणाम है, जल का परिणाम है, जीव का परिणाम है अथवा पुद्गल का परिणाम है ? [15 उ.] गौतम ! तमस्काय पृथ्वी का परिणाम नहीं है, किन्तु जल का परिणाम है, जीव का परिणाम भी है और पुद्गल का परिणाम भी है। 16. तमुकाए णं भते! सव्वे पाणा भूता जीवा सत्ता पुढ विकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववन्नपुवा? हंता, गोयमा ! असई अदुवा प्रणतखुत्तो, णो चेव णं बादरपुढविकाइयत्ताए वा, बादरअगणिकाइयत्ताए वा। [16 प्र.] भगवन् ! क्या तमस्काय में सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व-पृथ्वीकायिक रूप में यावत् त्रसकायिक रूप में पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? _[16 उ ] हाँ, गौतम ! (सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, तमस्काय में) अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं; किन्तु बादर पृथ्वीकायिक रूप में या बादर अग्निकायिक रूप में उत्पन्न नहीं हुए हैं। विवेचनतमस्काय के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुन्नों से प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत 16 सूत्रों (सू. 1 से 16 तक) में विभिन्न पहलुओं से तमस्काय के सम्बन्ध में प्रश्न उठा कर उनका समाधान किया गया है / तमस्काय को संक्षिप्त रूपरेखा-तमस्काय का अर्थ है-अन्धकारमय पुद्गलों का समूह / तमस्काय पृथ्वीरज:स्कन्धरूप नहीं, किन्तु उदकरजःस्कन्धरूप है। क्योंकि जल अप्रकाशक होता है, और तमस्काय भी अप्रकाशक है। दोनों (अप्काय और तमस्काय) का समान स्वभाव होने से तमस्काय का परिणामी कारण अप्काय ही हो सकता है, क्योंकि वह प्रकाय का ही परिणाम है। तमस्काय एकप्रदेशश्रेणीरूप है, इसका अर्थ यही है कि वह समभित्ति वाली श्रेणीरूप है। एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org