________________ 308 ] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिन शब्दों की व्याख्या-'प्रहेगतिविसए' -नीचे जाने का विषय = शक्ति / 'पुश्वसंगइयस्स' = पूर्वपरिचित साथियों या मित्रों का / 'वेदण उदीरणयाए-दुःख को उदीरणा करने के लिए। वेदणउवसामणयाए - दुःख का उपशमन करने के लिए। णाणुप्यायमहिमासु = केवलज्ञान कल्याणक की महिमा (महोत्सव) करने के लिए। वित्तासति = त्रास पहुँचाते हैं। श्रहालहुसगाई = यथोचित लघुरूप-छोटे-छोटे अथवा अलघु = वरिष्ठ महान् / कार्य पव्वहंति = शरीर को व्यथित पीड़ित करते हैं / उप्पयंति-- ऊपर उड़ते हैं - जाते हैं / समइक्कंताहि = व्यतीत होने के पश्चात् / लोयच्छरभूए लोक में आश्चर्यभूत आश्चर्यजनक / णिस्साए - निधाय = प्राश्रय से / सुमहल्लमवि = अत्यन्त विशाल / जोहबलं = योद्धानों के बल = सैन्य को / प्रागलेंति = अकुलाते = थकाते हैं / णण्णस्थ = अथवा नान्यत्र = उनके निश्राय के बिना एगंतं = एकान्त, निर्जन / अंतं = प्रदेश / ' उप्पइयपुटिव - पहले ऊपर गया था / 18. अहो णं भंते ! चमरे प्रसुरिंद असुरकुमारराया महिड्डीए महज्जुतीए जाब कहिं पविट्ठा ? कूडागारसालादिद्रुतो भाणियव्यो। [18 प्र.] 'अहो, भगवन् ! (पाश्चर्य है,) असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि एवं महाद्युति वाला है ! तो हे भगवन् ! (नाट्यविधि दिखाने के पश्चात्) उसकी वह दिव्य देवऋद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव कहाँ गया, कहाँ प्रविष्ट हुमा ?' [18 उ.] (गौतम ! पूर्वकथितानुसार) यहाँ भी कुटाकारशाला का दृष्टान्त कहना चाहिए। (अर्थात्-कटाकारशाला के दृष्ट्रान्तानुसार असुरेन्द्र की वह दिव्य देवऋद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव, उसी के शरीर में समा गया; शरीर में ही प्रविष्ट हो गया / ) चमरेन्द्र के पूर्वभव से लेकर इन्द्रत्वप्राप्ति तक का वृत्तान्त 16. चमरेणं भते ! असुरिंदे णं असुररण्णा सा दिव्या देविड्ढो तं चेव किणा लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया?२ एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबद्दोवे 2 भारहे वासे विझगिरिपायमूले बेमेले नाम सन्निवेसे होत्था / वष्णो / तस्थ गं बेभेले सन्निवेसे पूरणे नामंगाहावती परिवसति अड्ढे दित्ते जहा तामलिस्स (उ. 1 सु. 35.37) वत्तव्वया तहा नेतव्वा, नवरं चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहं करेता जाव विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं जाव सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गयं गहाय मुंडे भवित्ता दाणामाए पन्वज्जाए पवइत्तए। [16 प्र] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि और यावत् वह सब, किस प्रकार उपलब्ध हुई, प्राप्त हुई और अभिसमन्वागत हुई (अभिमुख आई) ? 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति., पत्रांक 174 2. इस प्रश्न के उत्तर को परिसमाप्ति 44 सूत्र में होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org