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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२ | [ 309 [19 उ.] हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष (क्षेत्र) में, विन्ध्याचल की तलहटी (पादमूल) में 'बेभेल' नामक सन्निवेश था / वहाँ 'पूरण' नामक एक गृहपति रहता था। वह पाढ्य और दीप्त था / यहाँ तामली की तरह 'पूरण' गृहपति की सारी वक्तव्यता जान लेनी चाहिए / (उसने भी समय आने पर किसी समय तामली की तरह विचार करके अपने ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का सारा भार सौंप दिया) विशेष यह है कि चार खानों (पुटकों) वाला काष्ठमय पात्र (अपने हाथ से) बना कर यावत् विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चतुर्विध ग्राहार बनवा कर ज्ञातिजनों आदि को भोजन करा कर तथा उनके समक्ष ज्येष्ठ पुत्र को कूटम्बका भार सापकर यावत् स्वयमेव चार खाना वाले काष्ठपात्र को लेकर मुण्डित हाकर ' कर 'दानामा' नामक प्रव्रज्या अंगीकार करने का (मनोगत संकल्प किया) यावत् तदनुसार प्रव्रज्या अंगीकार की।) 20, पव्वइए वि य णं समाणे तं चेव, जाव पायावणभमीग्रो पच्चोरुभइ पच्चोरुभित्ता सयमेव चउप्पुउयं वारुमयं पडिग्गा गहाय बेभेले सनिवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडेता 'जं मे पढमे पुडए पडइ कम्पह मे तं पंथिय पहियाणं दलइत्तए, जं मे दोच्चे पुडए पडइ कप्पड़ मे त काक-सुणयाणं दलइत्तए, जं मे तच्चे पुडए पडइ कप्पइ में तं मच्छ-कच्छभाणं दलइत्तए, जं मे चउत्थे पुडए पडइ कप्पइ मे तं अप्पणा पाहारं आहारित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 कल्लं पाउप्पभायाए रयणोए तं चेव निरवसेसं जाव जं से चउत्थे पुडए पडइ तं प्रप्पणा पाहारं प्राहारेइ / [20] प्रजित हो जाने पर उसने पूर्ववणित तामली तापस की तरह सब प्रकार से तपश्चर्या की, पातापना भूमि में प्रातापना लेने लगा, इत्यादि सब कथन पूर्ववत् जानना; यावत् [छद्र (बेले के तप) के पारणे के दिन] वह (पुरण तापस) आतापना भूमि से नीचे उतरा। फिर स्वयमेव चार खानों वाला काष्ठमय पात्र लेकर 'बेभेल' सन्निवेश में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय से भिक्षा-विधि से भिक्षाचरी करने के लिए घूमा। भिक्षाटन करते हुए उसने इस प्रकार का विचार किया --- मेरे भिक्षापात्र के पहले खाने में जो कुछ भिक्षा पड़ेगी उसे मार्ग में मिलने वाले पथिकों को दे देना है, मेरे (पात्र के दूसरे खाने में जो कुछ (खाद्य वस्तु) प्राप्त होगी, वह मुझे कौत्रों और कुत्तों को दे देनी है, जो (भोज्यपदार्थ) मेरे तीसरे खाने में पाएगा, वह मछलियों और कछुप्रों को दे देना है और चौथे खाने में जो भिक्षा प्राप्त होगी, वह स्वयं आहार करना है। [इस] प्रकार भलीभांति विचार करके कल (दूसरे दिन) रात्रि व्यतीत होने पर प्रभातकालीन प्रकाश होते ही ......यहाँ सव वर्णन पर्ववत कहना चाहिए-यावत बह दोक्षित हो गया.. चौथे खाने में जो भोजन पड़ता है, उसका आहार स्वयं करता है। 21. तए णं से पूरणे बालतवस्सी तेणं अोरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं तं चेव जाव बेभेलस्स सन्निवेलस्स मज्झमझेणं निम्गच्छति, 2 पाउय-कुडियमादीयं उवकरणं च उप्पुडयं च दारुमयं पडिगहयं एगंतमंते एडेइ, 2 बेभेलस्स सन्निवेसस्स दाहिणपुरस्थिमे दिसीमागे अद्धनियत्तणियमंडलं आलिहिता संलेहणाभूसणाभूसिए भत्त-पाणपडियाइक्खिए पापोवगमणं निवणे / [21] तदनन्तर पूरण बालतपस्वी उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रगृहीत बालतपश्चरण के कारण शुष्क एवं रूक्ष हो गया। यहाँ बीच का सारा वर्णन तामलीतापस की तरह (पूर्ववत्) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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