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________________ 310 / | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जानना चाहिए; यावत् वह (पूरण बालतपस्वी) भी 'बेभेल' सन्निवेश के बीचोंबीच होकर निकला / निकल कर उसने पादुका (खड़ाऊँ) और कुण्डी आदि उपकरणों को तथा चार खानों वाले काष्ठपात्र को एकान्त प्रदेश में छोड़ दिया / फिर बेभेल सन्निवेश के अग्निकोण (दक्षिणपूर्वदिशाविभाग) में अर्द्धनिर्वर्तनिक मण्डल रेखा खींच कर बनाया अथवा प्रतिलेखित-प्रमाजित किया / यों मण्डल बना कर उसने संलेखना को जूषणा (आराधना) से अपनी आत्मा को से वित (युक्त) किया / फिर यावज्जीवन पाहार-पानी का प्रत्याख्यान करके उस पूरण बालतपस्वी ने पादपोपगमन अनशन (संथारा) स्वीकार किया। 22. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! छउमत्थकालियाए एक्कारसवासपरियाए छठंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुल्वाणव्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सुसुमारपुरे नगरे जेणेव प्रसोगवणसंडे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे जेणेव पुढविसिलावट्टए तेणेव उवागच्छामि, 2 असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढविसिलावट्टयंसि अट्ठम भत्तं पगिण्हामि, दो वि पाए साहट्ट बग्घारियपाणी एगपोग्गलनिविद्वविट्ठी अणिमिसनयणे ईसिपाभारगएणं कारण प्रहापणिहिएहि गहि सबिदिहि गुत्तेहि एगरातियं महापडिम उवसंज्जित्ताणं विहामि / [22] (अब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अपना वृत्तान्त कहते हैं-) हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं छद्मस्थ अवस्था में था; मेरा दीक्षापर्याय ग्यारह वर्ष का था / उस समय मैं निरन्तर छह-छह (बेले-बेले) तप करता हुमा, संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूर्वानुपूर्वी (क्रम) से विचरण करता हुआ, ग्रामानुग्राम घूमता हुआ, जहाँ सुसुमारपुर नगर था, और जहाँ अशोकवनषण्ड नामक उद्यान था, वहाँ श्रेष्ठ अशोक के नीचे पृथ्वी शिलापट्टक के पास पाया / मैंने उस समय अशोकतरु के नीचे स्थित पृथ्वीशिलापट्टक पर (खड़े होकर) अट्ठमभक्त (तेले का) तप ग्रहण किया / (उस समय) मैंने दोनों पैरों को परस्पर सटा (इकट्ठा कर) लिया / दोनों हाथों को नीचे की ओर लटकाए (लम्बे किये हुए सिर्फ एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर (टिका) कर, निनिमेषनेत्र (प्राँखों की पलकों को न झपकाते हुए) शरीर के अग्रभाग को कुछ झुका कर, यथावस्थित गात्रों (शरीर के अंगों) से एवं समस्त इन्द्रियों को गुप्त (सुरक्षित) करके एकरात्रिकी महा (भिक्षु) प्रतिमा को अंगीकार करके कायोत्सर्ग किया। 23. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहाणी अणिदा अपुरोहिया याऽवि होत्था / तए गं से पूरणे बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाई परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए प्रत्ताणं झूसेत्ता सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदत्ता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए जाव इंदत्ताए उववन्ने / [23] उस काल और उस समय में चमरचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित थी। (इधर) पूरण नामक बालतपस्वी पूरे बारह वर्ष तक (दानामा) प्रव्रज्या पर्याय का पालन करके, एकमासिक संल्लेखना की आराधना से अपनी आत्मा को सेवित करके, साठ भक्त (साठ टंक तक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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