________________ चौदहवां शतक] [479 निसामेति से वि ताव तं वंदति नमसति जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासति, किमंग पुण तुम गोसाला! भगवया चेव पवाविए, भगवया चेव मुंडाविए, भगवया चेव सेहाविए, भगवया चेव सिक्खाविए, भगवया चेव बहुस्सुतीकते, भगवो चेव मिच्छं विष्पडिवन्ने, तं मा एवं गोसाला!, नारिहसि गोसाला ! , सच्चेव ते सा छाया, नो अन्ना। [71] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पूर्व देश में जन्मे हुए (प्राचीनजानपदीय) सर्वानुभूति नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे। वह अपने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश गोशालक के (अनर्गल) प्रलाप के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठे और मखलिपुत्र गोशालक के पास आकर कहने लगे हे गोशालक ! जो मनुष्य तथारूप श्रमण या माहन से एक भी प्रार्य (पापनिवारणरूप निर्दोष) धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उन्हें वन्दना-नमस्कार करता है, यावत् उन्हें कल्याणरूप, मंगलरूप, देवस्वरूप, एवं ज्ञानरूप मान कर उनकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तुम्हारे लिए तो कहना ही क्या ? भगवान् ने तुम्हें (धर्मवचन ही नहीं सुनाया अपितु) प्रवजित किया, मुण्डित (दीक्षित) किया, भगवान् ने तुम्हें (व्रत एवं प्राचार को) साधना सिखाई, भगवान् ने तुम्हें (तेजोलेश्यादि विषयक उपदेश देकर) शिक्षित किया; भगवान् ने तुम्हें बहुश्रुत किया; (इतने पर भी) तुम भगवान् के प्रति मिथ्यापन (अनार्यता) अंगीकार कर रहे हो ! हे गोशालक ! तुम ऐसा मत करो / तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं है / हे गोशालक ! तुम वही गोशालक हो, दूसरे नहीं, तुम्हारी वही प्रकृति है, दूसरी नहीं / 72. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूइणा अणगारेणं एवं बुत्ते समाणे आसुरसे 5 सव्वाणुभूति प्रणगारं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेति / [72] सर्वानुभूति अनगार ने जब मंखलिपुत्र गोशालक से इम प्रकार की बातें कहीं तब वह एकदम क्रोध से आगबबूला हो उठा और अपने तपोजन्य तेज (तेजोलेश्या) से उसने एक ही प्रहार में कूटाधात की तरह सर्वानुभूति अनगार को भस्म कर दिया। 73. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूई अणगारं तवेणं तेएणं एगाहच्च जाव भासरासि करेता दोच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहि आओसणाहिं आओसइ जाव सुहमस्थि। [73] सर्वानुभूति अनगार को भस्म करके वह मंलिपुत्र गोशालक फिर दूसरी वार श्रमण भगवान् महावीर को अनेक प्रकार के ऊटपटांग याक्रोश वचनों से तिरस्कृत करने लगा, (इत्यादि) यावत्-बोला---'आज मेरे द्वारा तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है।' विवेचन--सर्वानुभूति अनगार का भस्मीकरण-यद्यपि भगवान् महावीर ने सभी निर्ग्रन्थ श्रमणों को गोशालक को छेड़ने की मनाही की थी, किन्तु धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश सर्वानुभूति अनगार से न रहा गया, उन्होंने गोशालक को भगवान् द्वारा उसके प्रति किये गए उपकारों का स्मरण कराया, यथार्थ बात कही, जिस पर अत्यन्त कुपित होकर गोशालक ने उन्हें जला कर भस्म कर दिया / यद्यपि भगवान् ने गोशालक की अपेक्षा अनन्त-गुण-विशिष्ट तप-तेज सामान्य अनगार का बताया था, बशर्ते कि वह क्षमा (क्रोधनिग्रह) समर्थ हो / प्रतीत होता है कि सर्वानुभूति अनगार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org