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________________ 480] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के मन में भगवान् के विषय में गोशालक के यद्वा-तद्वा आक्रोशपूर्ण एवं आक्षेपपूर्ण वचन सुन कर रोष उमड़ पाया हो. इसी कारण गोशालक का दाव लग गया हो।' कठिन शब्दों का अर्थ-पव्वाविए–प्रजित किया-शिष्यरूप से स्वीकार किया। मंडाविए-मंडित किया—मूण्डित गोशालक को शिष्यरूप में माना / सेहाविए--अत-प्राचार आदि पालन करने का की साधना सिखाई, सिक्खाविए-तेजोलेश्यादि के विषय में उपदेश देकर शिक्षित किया / बहुस्सुतीकए-नियतिवाद आदि के विषय में हेतु, युक्ति आदि से बहुश्रुत (शास्त्रज्ञ) बनाया / ' गोशालक द्वारा भगवान के किये गए अवर्णवाद का विरोध करने वाले सुनक्षत्र अनगार का समाधिपूर्वक मरण 74. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी कोसलजाणवए सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए धम्मायरियाणुरागणं जहा सम्वाणुभूती तहेव जाव सच्चेव ते सा छाया, नो अन्ना / [74] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का कोशल जनपदीय (अयोध्या देश) में उत्पन्न (एक और) अन्तेवासी सुनक्षत्र नामक अनगार था। वह भी प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। उसने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश सर्वानुभूति अनगार के समान गोशालक को यथार्थ बात कही, यावत्--'हे गोशालक ! तू वही है, तेरी प्रकृति वही है, तू अन्य नहीं है। 75. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्वत्तेणं अणगारेणं एवं धुत्ते समाणे आसुरुत्ते 5 सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेति / तए णं से सुनक्खत्ते अणगारे गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमसति, वं० 2 सयमेव पंच महत्वयाई पारुभेति, स० आ० 2 समणा य समणीयो य खामेति, सम० खा० 2 आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते आणुपुवीए कालगते / [75] सुनक्षत्र अनगार के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुया और अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को भी परितापित कर (जला) दिया। मंखलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से जले हुए सुनक्षत्र अनगार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप आकर और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके उन्हें वन्द ना-नमस्कार किया। फिर (उनकी साक्षी से) स्वयमेव पंच महाव्रतों का आरोषण किया और सभी श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की। तदनन्तर पालोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त कर अनुक्रम से कालधर्म प्राप्त किया। 76. तए णं से गोसाले मंखलियुत्ते सुनक्खतं अणगारं तवेणं तेयेणं परितावेत्ता तच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहि आओसणाहिं आओसति सन्वं तं चेव जाव सुहमस्थि / [76] अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को जलाने के बाद फिर तोसरी बार मंखलिपुत्र 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) , भा, 5, पृ. 2432 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 683 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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