________________ 16] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रूप) में, अनिच्छनीयता (मनोप्सित रूप) में, अनभिध्यितता (प्राप्त करने हेतु प्रलोभता) में, अधमता में, अनूलता में, दुःख रूप में,...असुखरूप में बार-बार परिणत होता है ? 2-1 उ.] हाँ, गौतम ! महाकर्म वाले जीव के""यावत् ऊपर कहे अनुसार ही यावत् परिणत होता है। [2] से केण?ण? गोयमा ! से जहानामए वत्थस्स महतस्स वा धोतस्स वा तंतुम्गतस्स वा प्राणुषुवीए परिभुज्जमाणस्स सम्वनो पोग्गला बज्झति, सम्वनो पोग्गला चिज्जंति जाव परिणमंति, से तेण?णं / [2.2 प्र.] (भगवन् ! ) किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? |2.2 उ.] गौतम ! जैसे कोई अहत (जो पहना गया-परिभुक्त न हो), धौत (पहनने के बाद धोया हुआ), तन्तुगत (हाथ करघे से ताजा बुन कर उतरा हुआ) वस्त्र हो, वह वस्त्र जब क्रमशः उपयोग में लिया जाता है, तो उसके पुद्गल सब पोर से बंधते (संलग्न होते हैं, सब ओर से चय होते हैं, यावत् कालान्तर में वह वस्त्र मसोते जैसा अत्यन्त मैला और दुर्गन्धित रूप में परिणत हो जाता है। इसी प्रकार महाकर्म वाला जीव उपर्युक्त रूप से यावत् असुखरूप में बार-बार परिणत होता है। 3. [1] से नूर्ण भंते ! अप्पकम्मस्स अप्पकिरियस्स अप्पासवस्स अपवेदणस्स सव्वानो पोग्गला भिज्जंति, सवग्रो पोग्गला छिज्जति, सम्वनो पोग्गला विद्ध संति, सवनो पोग्गला परिविद्धसंति, सया समितं पोग्गला भिज्जति छिज्जति विद्ध संति परिविद्ध संति, सया समितं च णं तस्स प्राया सुरूवत्ताए पसत्थं नेयन्वं जाव' सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए भुज्जो 2 परिणमंति ? हंता, गोयमा ! जाव परिणमंति / [3-1 प्र.] भगवन् ! क्या निश्चय ही अल्पकर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अल्प पाश्रव वाले और अल्पवेदना वाले जीव के सर्वत: (सब ओर से) पुद्गल भिन्न (पूर्व सम्बन्ध विशेष को छोड़ कर अलग) हो जाते हैं ? सर्वतः पुद्गल छिन्न होते (टूटते) जाते हैं ? सर्वत: पुद्गल विध्वस्त होते जाते हैं ? सर्वतः पुद्गल समग्ररूप से ध्वस्त हो जाते हैं ? , क्या सदा सतत पुद्गल भिन्न, छिन्न, विध्वस्त और परिविध्वस्त होते हैं ? क्या उसका प्रात्मा बाह्य आत्मा = शरीर) सदा सतत सुरूपता में यावत् सुखरूप में और अदुःखरूप में बार-बार परिणत होता है ? (पूर्वसूत्र में अप्रशस्त पदों का कथन किया है, किन्तु यहाँ सब प्रशस्त-पदों का कथन करना चाहिए।) [3-1 उ.] हाँ, गौतम ! अल्पकर्म वाले जीव का यावत् ऊपर कहे अनुसार ही यावत् परिणत होता है। 1. 'जाव' पद यहाँ निम्नलिखित पदों का सूचक है-'सुवष्णताए सुगंधत्ताए सुरसत्ताए सुफासत्ताए इटुसाए कंतताए पिपत्ताए सुभत्ताए मगुण्णत्ताए मणामसाए इच्छिपत्ताए अभिजिशपताए उड्डत्ताए, नो अहत्ताए, सुहताए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org