________________ छठा शतक : उद्देशक-३ ] [17 2] से केण?णं० ? गोयमा ! से जहानामए वत्थरस जल्लियस्स वा पंकितस्प्त वा मइलियरस का रइल्लियस्स वा प्रागुपुन्धीए परिकम्मिन्जमाणस सुद्धणं वारिणा धोवमाणस्स सम्वतो पोग्गला भिज्जंति जाव परिणमंति, से तेण?णं०। [3-2 प्र] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [3-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई मैला (जल्लित), पंकित (कीचड़ से सना), मैलसहित अथवा धूल (रज) से भरा वस्त्र हो और उसे शुद्ध (साफ) करने का क्रमश: उपक्रम किया जाए, उसे पानी से धोया जाए तो उस पर लगे हुए मैले-अशुभ पुद्गल सब अोर से भिन्न (अलग) होने लगते हैं, यावत् उसके पुद्गल शुभ रूप में परिणत हो जाते हैं, (इसी तरह अल्पकर्म वाले जीव के विषय में भी पूर्वोक्त रूप से सब कथन करना चाहिए / ) इसी कारण से, (हे गौतम ! अल्पकर्म वाले जीव के लिए कहा गया है कि वह""यावत् बारबार परिणत होता है / ) विवेचन–महाकर्मी और अल्पकर्मो जीव के पुद्गल-बंध-भेदादि का दृष्टान्तद्वयपूर्वक निरूपण--प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमश: महाकर्म प्रादि से युक्त जीव के सर्वतः सर्वदा-सतत पुद्गलों के बन्ध, चय, उपचय एवं अशुभरूप में परिणमन का तथा अल्प कर्म आदि से युक्त जीव के पुद्गलों का भेद, छेद, विध्वंस आदि का तथा शुभरूप में परिणमन का दो वस्त्रों के दृष्टान्तपूर्वक निरूपण किया गया है। निष्कर्ष एवं प्राशय-जो जीव महाकर्म, महाकिया, महाश्रव और महावेदना से युक्त होता है, उस जीव के सभी ओर से सभी दिशाओं अथवा प्रदेशों से कर्मपुद्गल संकलनरूप से बंधते हैं, बन्धनरूप से चय को प्राप्त होते हैं, कर्मपुद्गलों की रचना (निषेक) रूप से उपचय को प्राप्त होते हैं / अथवा कर्मपुद्गल बन्धनरूप में बंधते हैं, निधत्तरूप से उनका चय होता है, और निकाचितरूप से उनका उपचय होता है। ___ जैसे नया और नहीं पहना हुआ स्वच्छ वस्त्र भी बार-बार इस्तेमाल करने तथा विभिन्न अशुभ पुद्गलों के संयोग से मसोते जैसा मलिन और दुर्गन्धित हो जाता है, वैसे ही पूर्वोक्त प्रकार के दुष्कर्मपुद्गलों के संयोग से आत्मा भी दुरूप के रूप में परिणत हो जाती है। दूसरी ओर-जो जीव अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पाश्रव और अल्पवेदना से युक्त होता है, उस जीव के कर्मपुद्गल सब अोर से भिन्न, छित्र, विध्वस्त और परिविध्वस्त होते जाते हैं / और जैसे मलिन, पंकयुक्त, गंदा और धूल से भरा वस्त्र क्रमशः साफ करते जाने से, पानी से धोये जाने से उस पर संलग्न मलिन पुद्गल छूट जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, और अन्त में वस्त्र साफ, स्वच्छ, चमकीला हो जाता है, इसी प्रकार कर्मों के संयोग से मलिन अात्मा भो तपश्चरणादि द्वारा कर्मपुद्गलों के झड़ जाने, विध्वस्त हो जाने से सुखादिरूप में प्रशस्त बन जाती है। __ महाकर्मादि की व्याख्या-जिसके कर्मों की स्थिति आदि लम्बी हो, उसे महाकर्म वाला, जिसकी कायिकी आदि क्रियाएँ महान् हों, उसे महानिया वाला, कर्मबन्ध के हेतुभूत मिथ्यात्वादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org