SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 946
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम शतक ; उद्देशक-८ ] [345 ऐपिथिककर्मबन्ध : स्वामी, कर्ता, बन्धकाल, बन्धविकल्प तथा बन्धांश-(१) स्वामीऐर्यापथिककर्म का बन्ध नारक, तिर्यञ्च, और देवों को नहीं होता, यह केवल मनुष्यों को ही होता है। मनुष्यों में भी ग्यारहवें (उपशान्तमोह), बारहवें (क्षीणमोह) और तेरहवें (सयोगीकेवली) गुणस्थानवी मनुष्यों को ही होता है। ऐसे मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों ही होते हैं। जिसने पहले ऐर्यापथिककर्म का बन्ध किया हो, अर्थात्—जो ऐपिथिक कर्मबन्ध के द्वितीय-तृतीय आदि समयवर्ती हो, उसे पूर्वप्रतिपन्न कहते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा इसे बहुत-से मनुष्य नर और बहुत-सी मनुष्य नारियाँ बांधती हैं; क्योंकि ऐसे पूर्वप्रतिपन्न स्त्री और पुरुष बहुत होते हैं / और दोनों प्रकार के केवली (स्त्रीकेवली और पुरुषकेवली) सदा पाए जाते हैं। इसलिए इसका भंग नहीं होता। जो जीव ऐपिथिक कर्मबन्ध के प्रथम समयवर्ती होते हैं, वे 'प्रतिपद्यमान' कहलाते हैं। इनका विरह सम्भव है। इसलिए एकत्व और बहुत्व को लेकर इनके (स्त्री और पुरुष के) असंयोगी 4 भंग और द्विकसंयोगी 4 भंग, यों कुल 8 भंग बनते हैं। ऐपिथिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में जो स्त्री, पुरुष, नपुसक आदि को लेकर प्रश्न किया गया है, वह लिंग को अपेक्षा समझना चाहिए, वेद की अपेक्षा नहीं, क्योंकि ऐपिथिक कर्मबन्धकर्ता जीव उपशान्तवेदी या क्षीणवेदी ही होते हैं। इसीलिए इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया हैअपगतवेद-वेद के उदय से रहित जीव ही इसे बांधते हैं। पूर्वप्रतिपन्नक अवेदी जीव सदा बहुत होते हैं. इसलिए उनके विषय में बहवचन ही दिया गया है, जबकि प्रतिपद्यमान अवेदी जीव में विरह होने से एकत्व प्रादि की सम्भावना के कारण एकवचन और बहवचन दोनों विकल्प कहे गए हैं। जो जोव गतकाल में स्त्री था, किन्तु अब वर्तमानकाल में अबेदी हो गया है, उसे स्त्रीपश्चात्कृत कहते हैं, इसी तरह 'पुरुषपश्चात्कृत' और 'नपुंसकपश्चात्कृत' का अर्थ भी समझ लेना चाहिए / इन तीनों की अपेक्षा से यहाँ वेदरहित एक जीव या अनेक जीवों के द्वारा ऐर्यापथिककर्मबन्धसम्बन्धी 26 भंगों को प्रस्तुत करके प्रश्न किया है। इनमें असंयोगी 6 भंग, द्विकसंयोगी 12 भंग और त्रिकसंयोगी 8 भंग हैं / इस प्रश्न का उत्तर भी 26 भंगों द्वारा दिया गया है / कालिक ऐपिथिक कर्मबन्ध-विचार—इसके पश्चात ऐर्यापथिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में भूत, वर्तमान और भविष्य काल-सम्बन्धी प्राठ भंगों द्वारा प्रश्न किया गया है, जिसका उत्तर भवाकर्ष और 'ग्रहणाकर्ष' की अपेक्षा दिया गया है। अनेक भवों में उपशमश्रेणी की प्राप्ति द्वारा ऐपिथिक कर्मपुद्गलों का आकर्ष-ग्रहण करना 'भवाकर्ष' है और एक भव में ऐर्यापथिक कर्मपुद्गलों का ग्रहण करना, 'ग्रहणाकर्ष' है। भवाकर्ष की अपेक्षा यहाँ 8 भंग उत्पन्न होते हैं उनका आशय क्रमश: इस प्रकार है---१. प्रथम भंग-बांधा था, बांधता है, बांधेगा, यह भवाकर्षापेक्षया उस जीव में पाया जाता है, जिसने गतकाल (किसी पूर्वभव) में उपशमश्रेणी की थी, उस समय ऐर्यापथिक कर्म बांधा था; वर्तमान में उपशम श्रेणी करता है, उस समय इसे बांधता है और आगामी भव में उपशमश्रेणी करेगा, उस समय इसे बांधेगा। 2. द्वितीय भंग-बांधा था, बांधता है, नहीं बांधेगा-यह उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में उपशमश्रेणी की थी और ऐर्यापथिक कर्म बांधा था, वर्तमान में क्षपक श्रेणी में इसे बांधता है और फिर इसी भव में मोक्ष चला जाएगा, इसलिए आगामी काल में नहीं बांधेगा। 3. तृतीय भंग-बांधा था, नहीं बांधता है, बांधेगा---यह भंग उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभत्र में उपशमश्रेणी की थी, उसमें बांधा था, वर्तमान भव में श्रेणी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy