________________ 344] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 21. तं भंते ! किं साईयं सपज्जवसियं बंधइ ? पुच्छा तहेव / गोयमा ! साईयं वा सपज्जवसियं बंधइ, प्रणाईयं वा सपज्जवसियं बंधइ, अणाईयं वा अपज्जवसियं बंधइः णो चेव गं साईयं अपज्जवसियं बंधइ / [21 प्र.] भगवन् ! साम्परायिक कर्म सादि-सपर्यवसित बांधते हैं ? इत्यादि (सू. 15 के अनुसार) प्रश्न पूर्ववत् करना चाहिए। . [21 उ.] गौतम ! साम्परायिक कर्म सादि-सपर्यवसित बांधते हैं, अनादि-सपर्यवसित बांधते हैं, अनादि-अपर्यवसित बांधते हैं; किन्तु सादि-अपर्यवसित नहीं बांधते / 22. तं भंते ! कि देसेणं देसं बंधइ ? एवं जहेव इरियाहियाबंधगस्स जाव सवेणं सव्वं बंधइ / [22 प्र.] भगवन् ! साम्परायिक कर्म देश से आत्मदेश को बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न, (सू. 16 के अनुसार) पूर्ववत् करना चाहिए। [22 उ} गौतम ! जिस प्रकार ऐर्यापथिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में कहा गया है, उसी प्रकार साम्परायिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए, यावत् सर्व से सर्व को बांधते हैं / विवेचन-विविध पहलुप्रों से ऐपिथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध से सम्बन्धित निरूपणप्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. 10 से 22 तक) में ऐर्यापथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में निम्नोक्त छह पहलुओं से विचारणा की गई है-- 1. ऐर्यापथिक या साम्परायिक कर्म चार गतियों में से किस गति का प्राणी, बांधता है ? 2. स्त्री, पुरुष, नपुसक आदि में से कौन बांधता है ? 3. स्त्रीपश्चात्कृत, पुरुषपश्चात्कृत, नपुंसकपश्चात्कृत, एक या अनेक प्रवेदी में से कौन अवेदी बांधता है ? 4. दोनों कर्मों के बांधने की त्रिकाल सम्बन्धी चर्चा। 5. सादिसपर्यवसित आदि चार विकल्पों में से कैसे इन्हें बांधता है ? 6. ये कर्म देश से आत्मदेश को बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्नोत्तर / बन्ध : स्वरूप एवं विवक्षित दो प्रकार-जैसे शरीर में तेल आदि लगाकर धूल में लोटने पर उस व्यक्ति के शरीर पर धूल चिपक जाती है, वैसे ही मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव के प्रदेशों में जब हलचल होती है, तब जिस आकाश में यात्मप्रदेश होते हैं, वहीं के अनन्त-अनन्त तद्-तद्-योग्य कर्मपुद्गल जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ बद्ध हो जाते हैं। दूध-पानी की तरह कर्म और प्रात्मप्रदेशों का एकमेक होकर मिल जाना बन्ध है। बेड़ी आदि का बन्धन द्रव्यबन्ध है, जबकि कर्मों का बन्ध भावबन्ध है / विवक्षाविशेष से यहाँ कर्मबन्ध के दो प्रकार कहे गए हैं-ऐर्यापथिक और साम्परायिक / केवल योगों के निमित्त से होने वाले सातावेदनीय रूप बन्ध को ऐपिथिककर्मबन्ध कहते हैं। जिनसे चतुर्गतिकसंसार में परिभ्रमण हो, उन्हें सम्पराय-कषाय कहते हैं, सम्परायों (कषायों) के निमित्त से होने वाले कर्मबन्ध को साम्परायिककर्मबन्ध कहते हैं। यह प्रथम से दशम गुणस्थान तक होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org