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________________ बोसमा शतक : उद्देशक 8] प्रकर्मभूमि और कर्मभूमि के विविध क्षेत्रों में उत्सपिणो और अवसपिरणी काल के सद भाव-प्रभाव का निरूपण 3. एयासु णं भंते ! तीसासु अकम्मभूमीसु अस्थि प्रोस प्पिणी ति वा, उस्सप्पिणी ति वा ? को तिणट्ठ सम। 3 प्र. भगवन् ! इन (उपर्युक्त) तीस अकर्मभूमियों में क्या उत्सर्पिणी और अवपिणीरूप काल हैं ? | 3 उ.] (गौतम! ) यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। 4. एएसु णं भंते ! पंचसु भरहेसु पंचसु एरवएस, अस्थि प्रोसप्पिणी ति वा, उस्सप्पिणी ति वा? हंता, अस्थि / [4 प्र. भगवन् ! इन पांच भरत और पांच ऐरवत (क्षेत्रों) में क्या उत्सर्पिणी और अवपिणी रूप काल है ? [4 उ.] हाँ, (गौतम!) है / 5. एएसु णं भंते ! पंचसु महाविदेहेसु० ? णेवत्थि प्रोसप्पिणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवढिए णं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो ! [5 प्र.| भगवन् ! इन (उपर्युक्त) पांच महाविदेह क्षेत्रों में क्या उत्सपिणी अथवा अवसर्पिणी रूप काल है ? [5 उ.] अायुष्मन् श्रमण ! वहाँ न तो उत्सर्पिणीकाल है और न अवपिणीकाल है। वहाँ (एकमात्र) अवस्थित काल कहा गया है। विवेचन-उत्सपिणी और अवसपिणी काल का स्वरूप-- जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान उत्तरोत्तर अधिकाधिक शुभ होते चले जाएँ, आयु और अवगाहना उत्तरोत्तर बढ़ती जाए तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम को भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाए, उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं। इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी क्रमशः शुभ, शुभतर होते जाते हैं / अर्थात -अशुभतम, अशुभतर और अशुभ भाव क्रमश:-क्रमश: शुभ, शुभतर और शुभतम हो जाते हैं। इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते-होते क्रमश: उच्चतम अवस्था आ जाती है / उत्सपिणीकाल का कालमान दस कोडाकोडी सागरोपमवर्ष का होता है। जिस काल में संहनन और संस्थान क्रमश: अधिकाधिक होन होते जाएँ, प्रायु और अवगाहना भी उत्तरोत्तर घटती चली जाए तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम का क्रमश: ह्रास होता जाए, उसे 'अवसर्पिणीकाल' कहते हैं। अवपिणीकाल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हीन, हीनतर होते जाते हैं। शुभभाव घटते जाते हैं, अशुभभाव बढ़ते जाते हैं। अवसर्पिणीकाल का कालमान भी दस कोडाकोड़ी सागरोपम वर्ष का होता है।' 1. भगवती. विवेचन (पं. घेवर चन्दजी) भा. 6, पृ. 2902 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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