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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] 'पायरियाणं' पद के विशिष्ट अर्थ-वृत्तिकार ने प्राचार्य शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है(१) आ =मर्यादापूर्वक या मर्यादा के साथ जो भव्य जनों द्वारा, चार्य = सेवनीय हैं, वे प्राचार्य कहलाते हैं, (2) आचार्य वह है जो सूत्र का परमार्थ ज्ञाता, उत्तम लक्षणों से युक्त, गच्छ के मेढीभूत, गण को चिन्ता से मुक्त करने वाला एवं सूत्रार्थ का प्रतिपादक हो, (3) ज्ञानादि पंचाचारों का जो स्वयं ग्राचरण करते हैं, दूसरों को आचरण कराते हैं, वे प्राचार्य हैं। (4) जो (मुक्ति) दूत (प्राचार) की तरह हेयोपोदय के, संघहिताहित के अन्वेषण करने में तत्पर हैं, वे प्राचार्य हैं / ' 'उज्झायाणं' पद के विशिष्ट प्रथं उपाध्याय शब्द के पांच अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं(१) जिनके पास आकर सूत्र का अध्ययन, सूत्रार्थ का स्मरण एवं विशेष अर्थचिन्तन किया जाता है, (2) जो द्वादशांगीरूप स्वाध्याय का उपदेश करते हैं, (3) जिनके सान्निध्य (उपाधान) से श्रुत का या स्वाध्याय का अनायास ही पाय-लाभ प्राप्त होता है, (4) आय का अर्थ है-इष्टफल / जिनकी सन्निधि (निकटता) हो इष्टफल का निमित्त-कारण हो, (5) प्राधि (मानसिक पीड़ा) का लाभ (प्राय) प्राध्याय है तथैव 'अधो' का अर्थ है-कुबुद्धि, उसको प्राय अध्याय है, जिन्होंने प्राध्याय और अध्याय (कुबुद्धि या दुनि) को उपहत--नष्ट कर दिया है, वे उपाध्याय कहलाते हैं।' 'सव्वसाहणं' पद के विशिष्ट अर्थ–साधु शब्द के भी वृत्तिकार ने तीन अर्थ बताए हैं-- (1) ज्ञानादि शक्तियों के द्वारा जो मोक्ष की साधना करते हैं, (2) जो सर्वप्राणियों के प्रति समताभाव धारण करते हैं, किसी पर रागद्वेष नहीं रखते, निन्दक-प्रशंसक के प्रति समभाव रखते हैं, प्राणिमात्र को आत्मवत् समझते हैं, (3) जो संयम पालन करने वाले भव्य प्राणियों की मोक्षसाधना में सहायक वनते हैं, वे साधु कहलाते हैं। साधु के साथ 'सर्व' विशेषण लगाने का प्रयोजन-जसे अरिहन्तों और सिद्धों में स्वरूपतः सर्वथा समानता है, वैसी समानता साधुनों में नहीं होती / विभिन्न प्रकार की साधना के कारण साधुओं के अनेक अवान्तर भेद होते हैं। साधुत्व की दृष्टि से सब साधु समान हैं, इसलिए वन्दनीय हैं। सव' (सर्व) विशेषण लगाने से सभी प्रकार के, सभी कोटि के साधुओं का ग्रहण हो जाता है, फिर चाहे वे सामायिक चारित्री हों, चाहे छेदोपस्थापनिक, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्परायी हों या यथाख्यातचारित्री, अथवा वह प्रमत्तसंयत हों या अप्रमतसंयत (सातवें से 143 गुणस्थान तक के साधु) हों, या वे पुलाकादि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों में से कोई एक हों, अथवा वे जिनकल्पी, स्थविरकल्पी, प्रतिमाधारी, यथालन्दकल्पी या कल्पातीत हों, अथवा वे प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध या बुद्धबोधित में से किसी भी कोटि के हों, अथवा भरतक्षेत्र, महाविदेह क्षेत्र, जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड आदि (क) भगवती वृत्ति पत्रांक 3 (ख) 'मुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो, मच्छस्स मेढिभग्रो य / गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्यं वाएइ पायरियो / ' (ग) पंचविहं प्रायारं आयरमाणा तहा पयासंता / अायार दसंता पायरिया तेण वुच्चंति / / -भ. ब. 4 2. (क) भगवती वृत्ति पत्रांक 4 / (ख) बारसंगो जिणक्खायो सज्झा यो कहियो बूहे / तं उवासंति जम्हा उबज्झाया तेण वच्चति / / -भ. व. 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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