________________ बारहवां शतक : उद्देशक 5] [175 और जीवोपयोग के अमूर्त होने से अठारह पापस्थानों से विरमण भी अमूर्त है। इसलिए वह वर्णादि-रहित है। चार बुद्धि, अवग्रहादि चार, उत्थानादि पांच के विषय में वर्णादि-प्ररूपणा 9. अह भंते ! उत्पत्तिया वेणइया कम्मया पारिणामिया, एस णं कतिवण्णा ? तं चेव जाव अफासा पन्नत्ता। [6 प्र.] भगवन् ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धि, कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली हैं ? [E उ.] गौतम ! (ये चारों) वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं / 10. अह भंते ! उग्गहे ईहा अवाये धारणा, एस णं कतिवण्णा ? एवं चेव जाव अफासा पन्नत्ता। [10 प्र.] भगवन् ! अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श [10 उ.] गौतम ! (ये चारों) वर्ण यावत् स्पर्श से रहित कहे हैं। 11. अह भंते ! उहाणे कम्मे बले वोरिए पुरिसक्कारपरक्कमे, एस णं कतियपणे ? तं चेव जाव अफासे पन्नत्ते। [11 प्र.] भगवन् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, और पुरुषकार-पराक्रम, इन सबमें कितने वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श हैं ? [11 उ.] गौतम ! ये सभी पूर्ववत् वर्णादि यावत् स्पर्श से रहित कहे हैं। विवेचन-औत्पत्तिको बुद्धि आदि वर्णादिरहित क्यों-ौत्पत्तिकी प्रादि चार बुद्धियाँ, अवग्रहादि चार (मतिज्ञान के प्रकार) एवं उत्थानादि पांच, ये सभी जीव के उपयोगविशेष हैं, इस कारण अमूर्त होने से वर्ग, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं। औत्पत्तिको आदि बुद्धियों का स्वरूप-औत्पत्तिको-शास्त्र, सत्कर्म एवं अभ्यास के बिना, अथवा पदार्थों को पहले देखे, सुने और सोचे बिना ही उन्हें ग्रहण करके जो स्वतः सहसा उत्पन्न होती है, वह औत्पत्तिकी बुद्धि है / यद्यपि औत्पत्तिकी बुद्धि में क्षयोपशम कारण है, किन्तु वह अन्तरंग होने से सभी बुद्धियों में सामान्य रूप से कारण है, इसलिए इनमें उसकी विवक्षा नहीं की गई है / चनयिकी--विनय-(गुरुभक्ति-शुश्रूषा आदि) से प्राप्त होने वाली बुद्धि / कार्मिको-कर्म अर्थात्-सतत अभ्यास और विवेक से विस्तृत होने वाली बुद्धि / पारिणामिको-अतिदीर्घकाल तक पदार्थों को देखने आदि से, दीर्घकालिक अनुभव से, परिपक्व वय होने से उत्पन्न होने वाला प्रात्मा का धर्म परिणाम कहलाता है / उस परिणाम के निमित्त से होने वाली बुद्धि पारिणामिकी है / अर्थात्-वयोवृद्ध व्यक्ति 1. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 573 2. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 573 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org