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________________ 238 [व्याख्यांप्रज्ञप्तिसूत्र भवाहणाई। कालादे सेणं जहन्नेगं तिणि पलिग्रोवमाई मासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिग्रोवमाई पुवकोडीए अब्भहियाई; एवतियं / तइयो गमो] / [46] यदि वही (संज्ञो मनुष्य), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले संज्ञी पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है / यहाँ भी वही पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि उसकी अवगाहना जघन्य अंगुलपृथक्त्व और उत्कृष्ट पांच-सौ धनुष की होती है। स्थिति जघन्य मास-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की होती है / इसी प्रकार अनुबन्ध भी जान लेना। भवादेश से-जघन्य दो भव तथा कालादेश से--जघन्य मासपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। तृतीय गमक] 47. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जात्रो, जहा सन्निस्स पंचेंदियतिरिवखजोणियस्स पंचेंदियतिरिक्खजोगिएस उववज्जमाणस मज्झिमेस तिस् गमएस वत्तव्वया भणिया सच्चेव एतत्स वि मज्झिमेसु तिसु गमएस निरवसेसा भाणियव्वा, नवरं परिमाणं उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / सेसं तं चेव। [4-6 गमगा] / [47] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सं.पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो जिस प्रकार संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की बीच के तीन गमकों (4-5-6) में वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार इसके भी बीच के तीन गमकों को समस्त वक्तव्यता यावत्-भवादेश तक कहनी चाहिए / परन्तु विशेषता परिमाण के विषय में यह है कि वे उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, शेष पूर्वोक्तवत् कहना चाहिए। (4-5-6 48. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितोश्रो जाओ, सच्चेव पढमगमगवत्तम्बया, नवरं ओगाणा जहन्नेणं पंच धणुलयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई / ठिती अणुबंधो जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी / सेसं तहेव जाव भवाएसो त्ति / कालाएसेणं जहन्नेणं पुत्वकोडी अंतोमुहुत्तमन्भहिया, उक्कोसेणं तिनि पलिश्रोवमाइं पुवकोडिपुहत्तमभहियाई; एवलियं० / [सत्तमो गमो ] / [48] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो और सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो उसके लिए प्रथम गमक की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष-शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच-सौ धनुष की होती है। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष का है / शेष पूर्ववत् यावत भवादेश तक / कालादेश से-जधन्य अन्तमुहूर्त अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपथक्त्व अधिक तीन पल्योषम, (इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। सप्तम गमक] 46. सो चेव जहन्नकाल द्वित्तीएसु उववन्नो, एसा चेव दत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं पुवकोडी अंतोमुत्तममहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुश्वकोडीओ चहिं अंतोमुहुतेहि अन्भहियानो० / [अट्ठमो गमयो] / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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